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जहण्णसत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
१२५ अंगो०-वएण०४-अगु०४--पसत्थ० --तस०४--सुभग-सुस्सर आदें -णिमि०णि बं० असंखेंजभागभहिय० । तिरिक्ख०-मणुसगदि-वजरि०-दोआणु०-उज्जो -थिराथिरसुभासुभ-अजस० सिया० असंखेंजदिभा० । वज्जणारा• सिया० । तं तु० । जस. सिया० असंखेंजगुणः । एवं वज्जणारा० ।
२५३. सादिय० जह हि०० णग्गोदभंगो। णवरि णाराय. सिया० । तं तु० । दोसंघ० सिया० असंखेज दिभा० । एवं पारायणः ।।
२५४. खुज. जहहि बं० पंचिंदि०-ओरालि-तेजा.-क०-ओरालि अंगो०वएण०४-अगु०४--पसत्थ---तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे--णिमि०णि. बं. असंखेज्जदिभा० । तिरिक्ख०-मणुसगदि-तिएिणसंघ०-दोआणु० --उज्जो -थिराथिर-मुभा. इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो पानुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। वज्रनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यश कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वज्रनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२५३. स्वाति संस्थानकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवकी, अपेक्षा सन्निकर्ष न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानके समान है। इतनी विशेषता है कि यह नाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य, एक समय अघिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। दो संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२५४. कुब्जक संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुखर, प्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, तीन संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवा
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