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जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
१४१ पढमदंडो, अथिरादि विदियदंडो य ।
२६६. सव्वएइंदियाणं तिरिक्वोघं । सव्वविगलिंदियाणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्त० सत्तएणं कम्माणं मणुसोघं । णामपगदीणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। आहार-आहार अंगो०-जस०-तित्थय० मूलोघं ।
२६७. पुढविल-आउ०-वणप्फदिपत्तेय० पज्जत्तापज्जत्ता णियोदजीवा बादरसुहुम-पज्जत्तापजत्ता मणुसअपज्जत्तभंगो कादव्यो । णवरि असंखेज्जदिभागब्भहियं । तेउ-वाउ०-बादरमुहुम-पज्जत्तापज्जत्त० सो चेव भंगो । एवरि सव्वाणं तिरिक्वधुविगाणं कादव्वं ।
२६८ तस-तसपज्जत्ता सत्तएणं कम्मारणं मणुसोघं । णामस्स वेउब्बियछ०आहारदुग-जसगि०-तित्थय० मूलोघं । सेसाणं वेइंदियपज्जत्तभंगो। ___२६६. पंचमण-तिएिणवचि० पाणावर० वेदणी० आयु० गोद० अंतराइगं च ओघं । णिदाणिदाए ज० ठि०बं० पचलापचला-थीणगिद्धि० णि० बं० । तं तु । सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके नौ प्रैवेयकका प्रथम दण्डक और अस्थिर आदिका दूसरा दण्डक जानना चाहिए।
२९६. सब एकेन्द्रिय जीवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग जानना चाहिए । सब विकलेन्द्रियों में पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य मनुष्योंके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। आहारक शरीर, आहारक प्राङ्गोपाङ्ग, यशःकीर्ति और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मूलोघ के समान है।
२९७. पृथ्वीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक प्रत्येक तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त तथा निगोद जीव और इनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यातवाँ भाग अधिक जानना चाहिए । अग्निकायिक और वायुकायिक तथा बादर और सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके वही भङ्ग कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सबके तिर्यश्च ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका कहना चाहिए ।
२६८. त्रस और त्रस पर्याप्त जीवों में सात कर्मों का भङ्ग सामान्य मनुष्योंके समान है । नामकर्मकी वैक्रियिक छह, आहारकद्विक, यश-कीर्ति और तीर्थङ्कर प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघ के समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान है।
२९९. पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवों में ज्ञानावरण, वेदनीय, आयु, गोत्र और अन्तरायकी प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । निद्रा निद्राकी जघन्य स्थितिका वन्धक जीव प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। निद्रा और प्रचलाका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका
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