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महाबंधे ट्ठदिबंधाहियारे
११२. सम्मामि० श्रधिभंगो । मिच्छे मदिभंगो । सरिण ० मूलोघं । असvir पंचा० - वदंसरणा० - मोहणी ० छव्वीस - चदुत्रायु० - दोगोद० - पंचंत ० पंचिंदियतिरिक्ख पज्जत्तभंगो । गिरयगदिसंजुत्ताणं गामपगदीणं तिरिक्खोघं । तिरिक्खगदि० उक्क० हिदिबं० तेजा० क ० हुड० - वरण ०४ - अगु० -उप०-३ ० अथिरादिपंच- णिमि० पि संखेज्जदिभागू० । एइंदि० ओरालि० - तिरिक्खाणु० - थावर - सुहुम-अपज्ज०साधार० णि० । तं तु० । एवमेदासि तंतु ० पदिदारणं सरिसो भंगो ।
मणुसाणु० शि० । तं तु० । सेसाणं
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११३. मणुसग० उक्क० द्विदिबं० संखेज्जदिभागू० ।
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११४. देवगदि उक्क० हिदिबं० पंचिंदि ० - वेउवि तेजा० क० - वेउब्वि० अंगो०वण्ण०४-अगु०४-तस०४-रि० ० संखेज्जदिभागू० । समचदु० - देवाणु ०-पसत्थ० - सुभग-सुसर आदें० णिय० । तं तु० । थिराथिर - सुभासुभ - जस ० - अजस० सिया० ११२. सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में अवधिज्ञानियोंके समान भङ्ग है । मिध्यादृष्टि जीवों में मत्यज्ञानियों के समान भङ्ग है। संज्ञी जीवोंमें मूलोधके समान भङ्ग है । असंशी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, छब्बीस मोहनीय, चार आयु, दो गोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । नरकगति सहित नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । एकेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थिति का भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमले उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार 'तं तु' रूपसे कही गई इन प्रकृतियोंका सदृश भंग होता है ।
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११३. मनुष्यगति की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । तथा शेष प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । ११४. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, स चतुष्क और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवीं भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। समचतुरस्र संस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और श्रादेय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका
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