________________
महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे १३१. पंचिंदियस्स उक्क हिदिवं० पंचणा०-णवदंसणा-असादा-मिच्छत्तसोलसक०-णवुस० अरदि-सोग-भय-दुगु-तेजा-क-हुड०-वएण०४-अगु०४-- अप्पसत्थ०-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि०-णीचा०-पंचंत० णि० बं० । तं तु० । णिरयाणु० णाणावरणभंगो । णिरयगदि-तिरिक्खगदि-ओरालि०-वेउवि०-दोअंगो०असंपत्त०-दोआणु०-उज्जो० सिया० । तं तु । एवं पंचिंदियभंगो अप्पसत्थ०तस-दुस्सर ।
१३२. आहारसरी० उक्क हिदिवं० पंचणा०-छदसणा-सादावे०-चदुसंज०पुरिस०-हस्स-रदि--भय--दुगु-देवगदि--पंचिंदि०-वेउव्वि०-तेजा-क०-समचदु०वेउवि०अंगो०-वएण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ-तस०४-थिरादिछ०-णिमि०उच्चा-पंचंत० णि० बं० संखेज्जगुणही । आहार०अंगो० णि वं० । तं तु० । तित्थय० सिया० संखेज्जगुणहीणं । एवं आहार अंगो०।।
१३१. पञ्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। नरक गत्यानुपूर्वोका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। नरकगति, तिर्यश्चगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दोश्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिकासहनन, दोआनुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय जातिके समान अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर प्रकृतियोंकी प्रमुखतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१३२. आहारक शरीरकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुष वेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुण हीन स्थितिका बन्धक होता है । आहारक शरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहोन स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार आहारक श्राङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org