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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा १७६. दो आयु. णिरयभंगो। मणुसग०-मणुसाणु०-चदुसंठा-चदुसंघ. णिरयभंगो । एइंदियस्स उ०वि० हेहा उवरि णाणावरणभंगो। णामाणं सत्थाणभंगो । एवं आदाव-थावर० । पंचिंदि० उ०हि०० हेहा उवरि णाणावरणभंगो । णामाणं सत्थाणभंगो । एवं ओरालिअंगो०-असंपत्त०-अप्पसत्थवि०-तस-दुस्सर० । तित्थय० उक्क हिदिबं० णि भंगो।
१७७. भवण-वाणवेत०-जोदिसिय०-सोधम्मीसाणदेवेसु आभिरिणबोधि० उक्क हिदिवं० चदुणा०-गवदंसणा-असादा-मिच्छ ०-सोलसक०-एस--अरदि-- सोग-भय-दुगु--तिरिक्वग-एइंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-हुंड०--वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-थावर-बादर-पज्जत्त--पत्ते--अथिरादिपंच--णिमि०--णीचा०--पंचंत० णि बं० । तं तु । आदाउज्जो० सिया० । तं तु० । एवमेदाओ ऍकमेकॅस्स । तं तु०।
- १७६. दो आयुओंका भङ्ग नारकियोंके समान है । मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, चार संस्थान और चार संहननका भङ्ग नारकियोंके समान है। एकेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके आगे-पीछेकी प्रकृतियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है तथा नाम कर्मकी प्रकृतियों का भङ्ग स्वस्थानके समान है। इसी प्रकार आतप और स्थावर प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । पञ्चन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके आगे-पीछेकी प्रकृतियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है । इसी प्रकार औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जोवका भङ्ग नारकियोंके समान है।
१७७. भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान कल्पवासी देवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानाधरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्टस्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। आतप और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवी भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इनका परस्पर सन्नि. कर्ष जानना चाहिए । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनु
र अनुत्कृष्ट स्थिति का भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका वन्धक होता है।
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