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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
१०९ २२०. तेऊए देवगदि० उ०हि०० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०भय-दुगु-पंचिंदि०-तेजा-क-समचदु०-वएण०४-अगु०४--पसत्थ०-तस०४-सुभगसुस्सर-आदे-णिमि०-उच्चा०-पंचंत णि बं० संखेज्जगुणही। सादासाद०-इत्थिपुरिस०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ--जस०-अजस० सिया० संखेज्जगुपही। वेउवि०-बेउबि० अंगो०-देवाणु०णि बं० । तं तु । एवं वेउधि-वेउन्धि अंगो०-देवाणु० । तिरिक्व-मणुसायुगं देवोघं ।
२२१. देवायु० उ०हि०० पंचणा-छदंसणा०-सादा०-चदुसंज०-पुरिस-हस्सरदि-भय-दुगु-देवगदि-पसत्थहावीस-उच्चा-पंचंत० णिय० बं० संखेज्जगुणहीणं० । थीणगिद्धितिय-मिच्छ०-बारसक०-तित्थय सिया० संखेंज्जगुणही । सेसाओ पगदीओ सोधम्मभंगो । 'णवरि आहारदुगं अोघं । एवं पम्माए वि । पवरि सहस्सारभंगो कादव्यो।
२२०. पीत लेश्यावाले जीवोंमें देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलधु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, निर्माण, उच्च गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशाकीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है।
२२१. देवायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्च गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो मियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, बारह कषाय. और तीर्थङ्कर इनका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है । इतनी विशेषता है कि आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार पद्म लेश्याम भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसमें सहस्रार कल्पके समान कथन करना चाहिए।
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