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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे
२१८. एइंदि० उक्क० द्वि०चं० पंचरणा० एवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक० स०भय० - दु०--तिरिक्खगदि-ओरालिय० - तेजा ० ०-क०- -- हुंड०-वरण०४- तिरिक्खाणु०अगु० -उप० - दूभग अरणादे० - रिणमि० णीचा० -पंचंत० रिग० बं० संखेज्जगुणही ० । सादासा०-हस्स-रदि- अरदि- सोग - पर० - उस्सा० उज्जो ० - बादर - पज्जत्त-- पत्तेय०-थिराथिर- सुभाशुभ-जस० - अजस० सिया संखेज्जगुणहीणं । आदाव- सुहुम-अपज्जतसाधार० सिया० । तं तु । थावर० णि० बं० । तं तु० । एवं आदाव - थावर० ।
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२१६. बीइंदि० उ० द्वि०० हेद्वा उवरिं एइंदियभंगो | णामारणं सत्थाणभंगो । एवं तीइंदि - चदुरिंदि ० | सुहुम-साधारणं एइंदियभंगो । वरि आदाउज्जोत्रं वज्ज । अपज्जत्त० उ० हि०० हेडा उवरि एइंदियभंगो । गामाणं सत्थाणभंगो ।
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उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२१८. एकेन्द्रिय जातिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, दुर्भग, श्रनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, परघात, उच्लास, उद्योत, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, स्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकोर्ति और अयशःकोर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातच भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । स्थावर प्रकृतिका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका वन्धक होता है । इसी प्रकार आतप और स्थावरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२१९. द्वीन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवके नीचे और ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग एकेन्द्रिय जातिके समान है । तथा नाम कर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है । इसी प्रकार श्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा सूक्ष्म और साधारण प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष एकेन्द्रिय जातिके समान है । इतनी विशेषता है कि श्रातप और उद्योतको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। अपर्याप्त प्रकृति की उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवके नीचे और ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग एकेन्द्रिय जातिके समान है । तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है ।
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