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उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १८५. अणुदिसादि याव सव्वहा त्ति आभिणिबोधि० उक्क हिदिवं० चदुणा०-छदंसणा-असादा० बारसक-पुरिस-अरदि-सोग-भय-दुगु-मणुसगदिपंचिंदि०-ओरालि-तेजा०-क-समचदु०-ओरालि अंगो-वज्जरिस०-वएण०४-मणुसाणु०-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४--अथिर--असुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-अजस०णिमि०-उच्चा०-पंचंत० णिय० बं० । तं तु । तित्थय सिया० । तं तु०। एवमेदाओ ऍकमेकसस । तं तु० ।
१८६. सादा० उक्त हिदिवं० हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० सिया। तं तु । अरदि-सोग-अजस-तित्थय० सिया० संखेजदिभागू० । सेसाणि णिय. बं. संखेजदिभाग० ।
१८५. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवों में श्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, वर्ण चतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, बस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, अयश कीर्ति, निर्माण उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है
और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु ऐसी अवस्थामें यह जीव उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है।
१८६. साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव हास्य, रति, स्थिर, शुभ, और यशःकोर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समयन्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। अरति, शोक, अयश-कीर्ति और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवा भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है।
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