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महाबंधे टिदिबंधाहियारे तित्थय० सिया० । —तु० । एवमेदाओ ऍकमेक्कस्स । तं तु० । ___ २०६. सादावे० उ.हिबं० हस्स-रदि-थिर-सुभ-जसगि० सिया० । तं तु० । अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस०--देवगदि-दोसरी-दोअंगो०-वजरि०-दोआणु० तित्थय सिया० संखेजगुणहीणं० । सेसाओ णिय० बं० संखेज्जगुणही । एवं हस्स-रदि-थिर-सुभ-जसगि ।
२१०. मणुसायु० उ०हि०बं० पंचणा०-छदंसणा-बारसक०-पुरिस०-भय-दु०मणुसग०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि--- वएण०४-मणुसाणु०--अगु०४--पसत्थ---तस०४--सुभग-सुस्सर--आदें---णिमि०उच्चा०-पंचंत० णि० बं० संखेंजगुणही० । सादासा-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ-जस-अजस०-तित्थय सिया० संखेजदिगुणहीणं० । देवायु० अोघं । बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थिति का बन्धक होता है तो नियम से उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए और तब ऐसी स्थितिमें यह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यन तक स्थितिका बन्धक होता है।
२०९. साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति, देवगति, दो शरीर, दो प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन, दो आनुपूर्वी और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशःकोर्तिकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२१०. मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, छः दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर,समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णच. तुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकोर्ति, अयशःकीर्ति और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृप संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। देवायुको अपेक्षा सन्निकर्ष अोधके For Private & Personal Use Only
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