________________
महाबंधे ट्टिदिबंधाहियारे
१७८. सादावे ० उक० द्विदिवं देवोघं । वरि पंचिंदि० चदुसंठा० ओरालि०अंगो०- पंच संघ ० - अप्पसत्थ तस दुस्सर० सिया ० संखेज्जदिभागू० । एवं हस्स-रदिथिर- सुभ-जसगि० ।
९०
१७६. इत्थि० उक्क० हिदिबं० देवोघं । वरि पंचिदि० ओरालि० अंगो०- अप्पसत्थ०-तस दुस्सर० प्रिय० बं० संखेज्जदिभागू० । दोसंठा० तिरिणसंघ० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं मणुसग०- मणुसासु० ।
०
つ
१८०. पुरिस० उक्क० हिदि०बं० देवोघं । वरि पंचिदि० ओरालि ० अंगो० तस० णि० बं० संर्खेज्जदिभागू० । चदुसंठा० पंचसंघ० - अप्पसत्थ० दुस्सर० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं पुरिसवेदभंगो समचदु० - वज्जरिसभ० पसत्थवि० - सुभगसुसर दे - उच्चा० । वरि उच्चागोदे तिरिक्खगदितिगं वज्ज । १८१. पंचिदि० उक्क० द्विदिबं० पंचरणा० - रणवदंसरणा० - असादा०-मिच्छ०सोलसक० एस० - अरदि-सोग-भय-दुगु० -ओरालि ० -- तेजा ० क ० - वरण०४--तिरि१७८. साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवका सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय जाति, चार संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति त्रस और दुःखर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१७९. स्त्री वेदी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवका सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःखर इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । दो संस्थान और तीन संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग म्यून स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१८०. पुरुषवेद की उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवका सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और त्रस इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । चार संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति और दुःखर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदके समान समचतुरस्र संस्थान, बज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और उच्चगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उच्चगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय तिर्यञ्चगतित्रिकको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चहिए ।
१८१. पञ्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org