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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
संठा०-ओरालि॰ अंगो०-पंचसंघ० - तिरिक्खाणु ० उज्जो० सिया० संखेज्जदिभागू० । समचदु० -- वज्जरि० १०--पसत्थ०-- - सुभग-- सुस्सर - आदेज्ज० ।
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एवं पुरिसभंगो आयु० श्रघं ।
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१५२. तिरिक्खग० उक्क० हिदिबं० पंचरणा० एवदंसणा ० - असादा०- -मिच्छ०सोलसक० - एस० - अरदि-सोग-भय-दुगु० -ओरालिय० तेजा० क० - हु'ड० - वरण ०४अगु०४- उप०-अथिरादिपंच - णिमि० णीचा० - पंचत० णि० बं० संखेज्जदिभागू० । चदुजादि - -वामणसंठा - ओरालि० अंगो० -- खीलियसंघ० -- असंपत्त० - आदाउज्जो०-थावरादि०४ सिया० । तं तु० पंचिंदिय- पर० - उस्सा० - अप्पसत्थ० -तस०४ - दुस्सर० सिया० संखेज्जदिभागू० । तिरिक्खाणु० रिंग० बं० । तं तु० । तिरिक्खगदीए सह तं तु पदिदाणं णामाणं हेहा उवरि तिरिकखगदिभंगो । ग्रामाणं सत्थाणभंगो ।
श्रङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदके समान समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुखर और आदेय इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। आयुकी अपेक्षा सन्निकर्ष श्रोघके समान 1
१५२. तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । चार जाति, वामन संस्थान, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, कीलक संहनन, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, श्रातप, उद्योत और स्थावर आदि चार इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्लास, अप्रशस्त विहायोगति, स चतुष्क और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । यहाँ तिर्यञ्चगतिके साथ 'तं तु० ' रूपसे नाम कर्मकी प्रकृतियों के आगे पीछेकी जितनी प्रकृतियाँ गिनाई गई हैं, उनके सन्निकर्षका भङ्ग तिर्यञ्चगति प्रकृतिके सन्निकर्ष के समान है । तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष स्वस्थानके समान है ।
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