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महाबंधे द्विदिवंधाहियारे थावरादि०४-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचा०-पंचंत० णिय बं० । तं तु० । एवमेदाश्रो ऍक्कमेक्कस्स । तं तु० ।
१५७. सादा० उक०हिदिबं० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०णवूस-भय-दुगु-तिरिक्खगदि-एइंदि०--ओरालि --तेजा०-क०--हुड०--वएण०४तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-थावरादि०४-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचा०-पंचंत. णिय. बं० संखेज्जदिभागू० । हस्स-रदि० सिया० । तं तु० । अरदि-सोग० सिया० संखेजदिभागू० । एवं हस्स-रदीणं ।
१५८. इत्थिवे. उक्क हिदिबं० पंचणा-णवदंसणा० मिच्छ०-सोलसक-भयदुगु०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-ओरालि अंगो०--वएण--४अगु०४--अप्पसत्थ०-तस०४-भग-दुस्सर-अणादे-णिमि०-णीचा०-पंचंत. णि संखेज्जदिभागुणं । सादासाद०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-तिरिक्वगदि-मणुसगदि-तिएिणसंठा०गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सबका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है।
१५७. साता प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुसक वेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीच गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। हास्य और रतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होत है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। अरति और शोकका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार हास्य और रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१५८. स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच झानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पोच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, तिर्यश्चगति, मनुष्य
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