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उक्कस्सपरत्थाणबंधसविण्यासपरूवणा
१०.
उज्जो ० -- अप्पसत्थ० --तस -- थावर - बादर-र-- पत्तेय० -- सुभादिपंच--पीचा० दुभाग्० । इत्थि० - मणुसगदि- मणुसाणु० सिया० तिभागू० । तिणिजादि-चदुसंठा०चदुसंघ० - सुहुम- साधार० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं सुभ-जस० । वरि अजस०- मुहुम- साधारणं वज्ज । १४०. तित्थय० क० द्विदिवं ० पंचरणा० छदंसणा ० - असादा ०- बारसक०पुरिस० - अरदि-सोग-भय-दुगु ० - देवर्गादि-पंचिंदि० - वेडव्वि ० - तेजा० क० --- समचदु० वेडव्वि० अंगो०-वरण ०४- देवाणु० गु०४-पसत्थ० -तस०४ - अथिर -- असुभ - सुभगसुस्सर-आदे० - जस० - णिमि० उच्चा० - पंचंत० णि० बं० णि० संखेज्जगुणही ० । उच्चा० पुरिसवेदभंगो । वरि तिरिक्खगदि - तिरिक्खाणु० - उज्जोवं वज्ज ।
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सिया०
१४१. देसेण रइएस आभिणिबोधियणाणा० उक्क० द्विदिवं० चदुणा एवदंसणा ० - असादा०-मिच्छ० - सोलसक०स० - अरदि -- सोग-भय-दुगु० - तिरिक्खगदि - पंचिंदि०--ओरालि० -- तेजा० - क० - हुंड० - - ओरालि० अंगो० - असंपत्त०
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१. मूलप्रतौ वरि जस० इति पाठः ।
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गति, स स्थावर, बादर, पर्याप्त, अशुभ श्रादि पाँच और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेद, मनुष्यगति और मनुष्य गत्यानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट तीन भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। तीन जाति, चार संस्थान, चार संहनन, सूक्ष्म और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि श्रयशःकीर्ति, सूक्ष्म और साधारण इन प्रकृतियोंको छोड़ कर यह सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
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१४०. तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुष वेद, ऋरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैककिङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । उच्चगोत्रका भङ्ग पुरुषवेदके समान है । इतनी विशेषता है कि इसके तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत इन तीन प्रकृतियोंको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए |
१४१. आदेश से नारकियोंमें श्रभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संह
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