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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
-ओरालि०
११०. गोद० उक० द्विदिबं० पंचिदि० -ओरालि ० तेजा ० क ०गो०- वरण०४ - अगु०४- अप्पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछ० - गिमि० पिय० बं० संखेंज्जदिभागू० । तिरिक्खगदि - मणुसगदि- तिरिणसंघ० - दोश्रणु० --उज्जो० सिया० संखेज्जदिभागू० । वज्जणारा० सिया० । तं तु । एवं वज्जणारायणं । एवं सादियं पि । वरि पारायणं सिया० । तं तु० । [ एवं ] पारायणं ।
१११. खुज्ज० उक्क० हिदिवं० तिरिक्खगदि-पंचिंदि० ओरालि ० -तेजा०-क०ओरालि० अंगो० ० ४ - तिरिक्खाणु० - अगु०४- अप्पसत्थ० --तस०४ - अथिरादिछ० णिमि० णि० बं० संखेज्जदिभागू० । खीलिय० उज्जो० सिया० संखेज्जदिभागू० । अद्धणारा० सिया० । तं तु । एवं श्रद्धणारा० ।
११०. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, श्रदारिक श्रङ्गोपाङ्ग वर्णचतुष्क, गुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातवाँ भागहीन अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, तीन संहनन, दो आनुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है जो नियमसे संख्यातवीं भागहीन अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है। वज्रनाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग हीनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार वज्रनाराचसंहननके उत्कृष्ट स्थिति बन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष कहना चाहिए । तथा इसी प्रकार स्वातिसंस्थानके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह नाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थिति का बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार नाराच संहननके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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१११. कुब्जक संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, "कार्मण शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियम से बन्धक होता है जो नियम से अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । कीलक संहनन और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका वन्धक होता है । अर्धनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका संख्यातवाँ भाग हीन तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अर्धनाराच संहननके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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