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उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा संखेजदिभागू० ! एवं देवाणु० । चदुजादि० पंचिंदिय०तिरिक्वअपज्जत्तभंगो।।
११५. समचदु० उक्क हिदिबं० पंचिंदि०-तेजा-क-वएण०४-अगु०४तस०४-णि णिय संखेज्जदिभागृ० । दोगदि-दोसरीर-दोअंगो-पंचसंघ०-दोआणु०उज्जोव-अप्पसत्थ०-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-दुस्सर-अणादे०-जस०-अजस० सिया० संखेजदिभागृ० । देवगदि-वज्जरि०-पसत्थ -सुभग-सुस्सर-आदें सिया० । तं तु ।
११६. चदुसंठा-ओरालि०अंगो-चदुसंघ--आदाउज्जो०-थिर--सुभ--जसगि० अपज्जत्तभंगो । आहार० ओघ । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं उक्कस्स-सत्थाणसएिणयासं समत्तं ।
११७. उक्कस्सपरत्थाणसएिणयासे पगदं । एत्तो उक्कस्सपरत्थाणसएिणयाससाधणटुं अहपदभूदसमासलक्खणं वत्तइस्सामो। तं जहा--पंचिंदियसएगीणं
असंख्यातवा भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश-कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थिति बन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। चार जाति के उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है।
११५. समचतुरन संस्थानकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रस चतुष्क और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। दो गति, दो शरीर, दो प्राङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति,स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ,दुर्भग, दुःस्वर,अनादेय,यश-कीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । देवगति, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेश इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है।
११६. चार संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, चार संहनन, आतप, उद्योत, स्थिर, शुभ और यश कीर्ति इनका भक अपर्याप्तकके समान है । आहारक जीवोंका भङ्ग ओघके समान है । तथा अनाहारक जीवोंका भंग कार्मणकाययोगी जीपोंके समान है।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्वस्थान सन्निकर्ष समाप्त हुआ।
११७. अब उत्कृष्ट परस्थान सन्निकर्षका प्रकरण है। अतएव आगे उत्कृष्ट परस्थान सन्निकर्षकी सिद्धिके लिए अर्थपदभूत समास लक्षणको बतलाते हैं । यथा-पञ्चेन्द्रिय
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