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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ही। चदुजादि-थावर-मुहुम-साधारण• सिया० । तं तु० । पंचिंदि०-ओरालि०अंगोअसंपत्त०-तस-बादर-पत्ते० सिया० संखेज्जगुणहीणं० । मणुसगदि-मणुसाणु० सिया० संखेज्जगुणहीणं० ।
६७. तित्थय० णिरयगदिभंगो । णवरिणीलाए तित्थय० देवगदिसंजुत्तं भाणिदव्वं । एवरि थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० सिया० संखेज्जगुणहीणं । एवं धुविगाणं पि णिय० संखेज्जगुणहीणं० ।।
१८. तेऊए सत्तएणं कम्माणं ओघ । देवगदि० उक्क हिदिवं० पंचिदि-तेजा० क०-समचदु०-वरण ४-अगु०४-पसत्थ-तस०४-सुथग-सुससर-अादें-णिमि० बं० संखेज्जगुणहीणं० । वेउवि अंगो०-देवाणु० णि० बं० । तं तु० । थिराथिर-सुभासुभ-जस-अजस० सिया० संखेज्जगुणहीणं० । एवं देवगदिभंगो वेउवि०-वेउवि० अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। चार जाति, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातों भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, त्रस, बादर और प्रत्येक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियम से अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है।
___९७. तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग नरकगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि नील लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका सन्निकर्ष कहते समय देवगतिके साथ कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुण हीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भी नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है।
९८. पीत लेश्यामें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है । देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहोन स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक सयय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशाकीत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्टसंख्यातगुण हीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगतिके समान वैक्रियिक
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