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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे मणुसाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-अथिर--असुभ--सुभग-सुस्सर-आदेज-अजस०णिमि० णिय० बं० । तं तु० । तित्थय सिया० । तं तु० । एवं ओरालि-ओरालि. अंगो०-वज्जरि०-मणुसाणु० ।
१०१. देवगदि० उक्क०हिदिवं. पंचिंदि-तेजा०-क०-समचदु०-वएण०४अगु०४-पसत्थ०-तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदे-अजस-णिमि० णि० बं० । तं तु० । तित्थय० सिया० । तं तु० । वेउव्वि०-वेउवि०अंगो०-देवाणुपु० णि. बं० । तं तु । एवं वेउवियदुग-देवाणुपु० ।
१०२. पंचिंदि० उक्क हिदिबं० तेजा-क०-समचदु०-वएण०४-अगु०४-पसत्थ०तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज-अजस-णिमि० णि० बं० । तं तु० ।
अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयशःकोर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका वन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार प्रौदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१०१. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायो
त्रस चतष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयश-कीर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धकहोता है तोनियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँभाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भो बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमले बन्धक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वैक्रियिक द्विक और देवगत्यानुपूर्वी के उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्षजानना चाहिए।
१०२. पञ्चेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुएक, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयश-कीर्ति और निर्माण इनका नियमसे वन्धक
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