________________
[३६ ] इसमें निम्न बातें हैं :(१) उपमान 'स्वतःसिद्ध' हो, कविकल्पित या संभावित न हो। इसके द्वारा उत्प्रे अलंकार
का निरास किया गया है। ( २ ) वह स्वयं ( उपमेय ) से भिन्न हो. क्योंकि भिन्न न होनेपर उपमा न होकर 'अनन्वय'
हो जायगा। ( ३ ) वह संमत (योग्य) अर्थात् निर्दष्ट हो। इससे तत्तत् उपमादोषों की व्यावृत्ति की गई है। (४) उपमानोपमेय का साम्य 'धर्म' के आधार पर वर्णित किया जाय, 'शब्द' के आधार
पर नहीं। इससे 'श्लेष' अलंकार की व्यावत्ति की गई है, क्योंकि वहाँ 'शब्द' के
आधार पर साम्य वर्णित होता है। (५ ) 'अन्य' ( उपमान ) के द्वारा वर्ण्य ( उपमेय ) की समानता वर्णित की जाय । इससे
प्रतीप अलंकार की व्यावृत्ति की गई है। प्रतीप अलंकार में वर्ण्य उपमान हो जाता है,
अवये उपमेय । (६) 'वाच्य' विशेषण के द्वारा व्यंग्योपमा का निराकरण किया गया है। (७) 'एकदा'-एकवाक्यगतप्रयोग के द्वारा उपमेयोपमा का निराकरण किया गया है,
जहाँ दो वाक्यों का प्रयोग पाया जाता है।' दीक्षित ने इस लक्षण में भी निम्न दोष बताये हैं:
(१) यह लक्षण कल्पितोपमा में घटित नहीं होता, क्योंकि 'स्वतः सिद्धेन' पद का प्रयोग किया गया है। साथ ही उत्प्रेक्षा की न्यावृत्ति के लिए इसका प्रयोग करना व्यर्थ है, क्योंकि उत्प्रेक्षा का निराकरण तो 'साम्यं' पद से ही हो जाता है। उत्प्रेक्षा में 'समानता' नहीं होती, वहाँ 'तादात्म्यादिसंभाबना पाई जाती है।
(२) 'भिन्नेन' पद का प्रयोग अनन्वय के वारण के लिए दिया गया है, पर कभी कभी उपमा में ऐसा देखा जाता है कि उपभेय सामान्यरूप होता है, उपमान विशेषरूप, ऐसी स्थिति में विशेष सामान्य से भिन्न तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि विशेष तथा सामान्य में परस्पर संबंध होता है । अतः 'मिन्नेन' विशेषण का प्रयोग व्यर्थ है।
(३) 'धर्मतः' पद के द्वारा विद्यानाथ ने 'शम्दसाम्य' का निषेध किया है, पर हम देखते हैं कि उपमा 'शब्दसाम्य' को लेकर भी पाई जाती है। इस बात पर रुद्रट ने जोर दिया है कि उपमा में 'शब्दसाम्य' भी हो सकता है।
'स्फुटमालकारावेताघुपमासमुच्चयो किन्तु ।
आश्रित्य शब्दमानं सामान्यमिहापि संभवतः॥ विद्यानाथ के लक्षण के अनुसार 'सकलकलं पुरमेतज्जातं सम्प्रति सुधांशुबिंबमिव' ( यह नगर इस समय चन्द्रबिंब की तरह सकलकल (पुरपक्ष में-कलकल शब्द से युक्त; चन्द्रपक्ष में-समस्त कलाओं वाला) हो गया है' में उपमा न हो सकेगी। अतः यह लक्षण दुष्ट है।
(४) 'अन्येन' पद जो प्रतीप के निराकरण के लिए प्रयुक्त हुआ है, ठीक नहीं, क्योंकि यहाँ पहले प्रयुक्त पद 'मिन्नेन' की पुनरुक्ति पाई जाती है।
(५) साथ ही अन्येन' का तात्पर्य है, वर्ण्य से अन्य अर्थात् अप्रकृत । इस तरह जहाँ प्रकृत उपमान से प्रकृत उपमेय की तुलना की जाती है, उस 'समुच्चितोपमा' में यह लक्षण घटित न हो सकेगा।
१.चित्रमीमांसा पृ०८।