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श्लेषालबारः
शक्ति ( अभिधा ) से ही प्रतीत होते हैं, क्योंकि तत्तत् श्लिष्ट पदार्थों का अप्रकृतार्थ में भी संकेत पाया जाता है, साथ ही अप्रकृतार्थ में संकेतप्रतीति न हो ऐसा कोई प्रतिवन्धक भी नहीं है। उसे ध्वनि केवल उपचारतः कहा जाता है, इसलिए कि प्रकृत ( उपमेय) तथा अप्रकृत ( उपमान) का उपमानोपमेयभाव तथा उपमादि अलंकार व्यञ्जनागम्य होता है, अतः अप्पयदीक्षित के मत में प्रकृत तथा अप्रकृत अर्थ दोनों वाच्य हैं, उपमादि अलंकार व्यंग्य । अप्पयदीक्षित तथा मम्मट की सरणियों के भेद को यों स्पष्ट किया जा सकता है।
मम्मट का मत :श्लिष्ट शब्द ( अभिधा) प्रकृत अर्थ (व्यजना) अप्रकृत अर्थ तथा अलंकार दीक्षित का मत :श्लिष्ट शब्द ( अभिधा) प्रकृत अर्थ (अमिषा) अप्रकृत अर्थ (व्यजना) अलंकार
इस विषय का वाद-विवाद मम्मट से भी प्राचीन है। आचार्य अभिनवगुप्त ने ही लोचन में इस संबन्ध में चार मत दिये हैं । 'अत्रान्तरे कुसुमसमययुगमुपसंहरन्नजम्भत प्रीष्माभिधानः फुल्लमल्लिकाधवलाट्टहासो महाकालः' इस उदाहरण को आनन्दवर्धन ने शब्दशक्तिमूलध्वनि के सम्बन्ध में उदाहृत किया है । वहाँ आनन्दवर्धन स्पष्ट कहते हैं कि जहाँ सामग्री महिमा के सामर्थ्य से किसी अलंकार की व्यञ्जना हो वहाँ ध्वनि होगी। 'यत्र तु सामाक्षिप्तं सदलङ्कारान्तरं शब्दशक्त्या प्रकाशते स सर्व एव ध्वनेविषयः।'
(ध्वन्यालोक पृ० २४१) ऐसा प्रतीत होता है कि आनन्दवर्धन को अलंकार का ही व्यंग्यत्व अभीष्ट है, अप्रकृतार्थ का नहीं । अभिनवगुप्त ने इसी प्रसंग में लोचन में चार मत दिये हैं।
(१) प्रथम मत के अनुसार जिन लोगों ने इन शब्दों का श्लिष्ट प्रयोग देखा है, उनको प्रकृतार्थ की प्रतीति अभिधा से होती है, तब अमिधाशक्ति के नियन्त्रित हो जाने पर, अप्रकृत अर्थ की प्रतीति व्यञ्जना से होती है।
(२) द्वितीय मत के अनुसार दूसरे ( अप्रकृत) अर्थ की प्रतीति भी अमिषा से होती है, किन्तु वह अभिधा महाकाल के सादृश्यात्मक अर्थ को साथ लेकर आती है, अतः उसे न्यजनारूपा कहा जाता है ( वस्तुतः वह है अभिधा ही, अर्थात् अप्रकृत वाच्य ही है)।
(३) इस मत में भी द्वितीय अर्थ की उपस्थापक है तो अमिषा ही, किन्तु उस अर्थ को उपचार से व्यंग्यार्थ मानकर उस वृत्ति को भी व्यञ्जना मान लेते हैं।
(४) यह मत दूसरे अर्थ की प्रतीति अभिधा से ही मानता है, वह न्याना को केवल अलंकारांश का साधन मानता है। (कहना न होगा दीक्षित को यह मत सम्मत है।)
अभिनवगुप्त को ये चारों मत पसन्द नहीं। उनका स्वयं का मत स्पष्टतः निर्दिष्ट नहीं है, फिर भी वे अप्राकरणिक अर्थ को भी व्यञ्जनागम्य मानते जान पड़ते हैं, जिसका स्पष्ट निर्देश सर्वप्रथम मम्मट में मिलता है।
रसगंगाधरकार पण्डितराज ने भी इसका विशद विवेचन करते हुए अपने नये मत का उपन्यास किया है, उनके मत से अप्रकरणिक अर्थ प्रायः अभिधागम्य ही होता है, किन्तु ऐसे स्थल भी होते हैं, जहाँ वे प्राच्य ध्वनिवादी के मत से सन्तुष्ट हैं ( अर्थात् जहाँ वे अप्राकरणिक अर्थ को व्यंग्य मानते हैं)। पण्डितराज के मत से योगरूढ अथवा गौगिकरूढ शब्दों का नानार्थस्थल में प्रयोग होने पर अप्राकरणिक अर्थ की प्रतीति में व्यजनाव्यापार ही होता है।
एवमपि योगरूढिस्थले विज्ञानेन योगापहरणस्य सकलतन्त्रसिद्धया स्वपनधिकरणस्य योगार्थालिंगितस्यार्थोतरस्य व्यक्ति विना प्रतीतिर्दुरुपपादा' (रसगंगाधर पृ० १४४)