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असंगत्यलङ्कारः
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स्यचिकीर्षया कारणभूतया सह पारिजातराहित्यस्य कार्यस्य विरुद्धवैयधिकरण्योपनिबन्धनात् 'विरुद्धं भिन्नदेशत्वं कार्य हेखोर संगतिः' इति प्राथमिकसंगतितो वैलक्षण्यानुपपत्तेः ।
आलंबनाख्यविषयतासंबंधेन चिकीर्षायाः सामानाधिकरण्येन कार्यमात्रं प्रति हेतुत्वस्य प्रसिद्धेः । न च पारिजात राहित्यस्याभावरूपस्य नित्यत्वाकारणाप्रसिद्धिरिति वाच्यम् । आलंकारिकनये तस्यापि जन्यत्वस्येष्टेः । लक्षणे कार्यकारणपदयोरुपलक्षणत्वस्योक्तत्वाच्च । 'गोत्रोद्धारप्रवृत्तोऽपि ' इत्युदाहरणे तु 'विरुद्धात्कार्य संपत्तिर्दृष्टा काचिद्विभावना' इति पंचमविभावनालक्षणाऽऽक्रान्तत्वाद्विभावनयैव गतार्थत्वादसंगतिभेदान्तरकल्पनाऽनुचिता । गोत्रोद्वारविषयकप्रवृत्तेर्गोत्रो भेदकरूपकार्ये विरुद्धत्वात् । सिद्धान्तेऽपि विभावनाविशेषोक्त्योः संकर एवात्रोचितः । ' नेत्रेषु कंकणं' इत्यादौ कंकणत्व - नेत्रालंकारत्वयोर्व्यधिकरणत्वेन प्रसिद्धयोः सामानाधिकरण्यवर्णनाद्विरोधाभासत्वमुचितम् । एवं मोहनिवर्तकस्व-मोहजनकस्वयोरपीति । (रसगंगाधर पृ० ५९४ - ९५ )
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कुवलयानन्द के व्याख्याकार वैद्यनाथ ने चन्द्रिका में पण्डितराज के मत का उल्लेख कर उसका खण्डन किया है । चन्द्रिकाकार दीक्षित के मत की पुष्टि यों करते हैं । 'अपारिजातां' वाला उदाहरण प्रथम असंगति का नहीं हो सकता । 'विषं जलधरैः' वाले उदाहरण में केवल कार्यकारण की भिन्नदेशता वाला चमत्कार है, यहाँ अन्यत्र करणीय कार्य के अन्यत्र करने का चमत्कार हैं, ' दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? इसी तरह 'नेत्रेषु कंकणं' आदि में विरोधाभास के होते हुए भी अन्यत्र करणीय शृङ्गार अन्यत्र किया जाता है, यह चमत्कार है ही, अतः दूसरी असंगति का निराकरण नहीं किया जा सकता । 'गोत्रोद्धार' में विभावना मानना ठीक नहीं, क्योंकि गोत्रोद्धार प्रवृत्ति में गोत्रोद्वंद से निवृत्त होने का अभाव पाया जाता है, अतः उसे एक दूसरे का विरोधी कैसे माना जा सकता है ? यदि किसी तरह विरोध मान भी लें, तो अन्य कार्य करने में प्रवृत्त व्यक्ति के द्वारा सद्विरुद्ध कार्य का करना यह तीसरे प्रकार की असंगति ठीक बैठ जाती है । 'मोहं जगत्त्रय' वाले उदाहरण में भी वही (विभावना ही ) है, यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि कृष्ण का मोहनिवर्तकत्व स्वतः सिद्ध नहीं है । अतः यहाँ विरोधाभास भी नहीं है, विभावना तथा विशेषोक्ति का संकर मानना तो और असंगत है । क्योंकि यहाँ गोत्रोद्धार प्रवृत्तिरूप कारण के होते हुए गोत्रोद्धाररूप कार्य की अनुत्पत्ति का उपन्यास नहीं पाया जाता, अपि तु विरुद्ध कार्योत्पत्ति पाई जाती है, यह ध्यान देने की बात है ।
'यत्तु - ' अन्यत्र ' 'इति कैश्चिदुक्तं तदसंगतम् ।.....वस्तुतस्तु - 'विषं जलधरैः पीतं मूर्च्छिताः पथिकांगनाः' इत्यत्रेव नात्र कार्यकारणवैयधिकरण्यप्रयुक्तो विच्छित्तिविशेषोऽपि स्वन्यत्र कर्तव्यस्यान्यत्र करणप्रयुक्त एवेति सहृदयमेव प्रष्टव्यम् । एवं 'नेत्रेषु कंकण' मित्यत्र सत्यपि विरोधाभासेऽन्यत्र चमत्कारित्वेन क्लृप्तालंकारभावादन्यत्र करणरूपाऽसंगतिरपि प्रतीयमाना न शक्या निराकर्तुम् । एवं 'गोत्रोद्धार प्रवृत्तोऽपी' त्युदाहरणे गोत्रोद्धारकविषयकप्रवृत्तेर्गोत्रोद्भेदरूपकार्यविरुद्धत्वात् 'विरुद्धा कार्य संपत्तिर्विभावना' इत्यपि न युक्तम् । गोन्त्रो द्वारप्रवृत्तेर्गोत्रोद्भेदनिवर्तकत्वाभावेन तद्विरुद्धत्वाभावात् । कथञ्चित्तदभ्युपगमेऽप्यन्यत्कार्य कर्तुं प्रवृत्तेन तद्विरुद्ध कार्यान्तरकरण रूपाऽसंगतिरपि 'मोहं जगत्त्रय भुवा 'मित्यादौ चमत्कारिवेन लब्धात्मिका न निवारयितुं शक्यते । न चात्रापि मोहनिवर्तकान्मोहोत्पत्तेः सैव विभा वनेति वाच्यम् । मोहनिवर्तकस्य सिद्धवदप्रतीतेः । अत एव न विरोधाभासोऽपि विशेषोक्तिकथनं वत्रासंगतमेव । न हि गोत्रोद्धारविषयकप्रवृत्तिरूपकारणसश्वेऽपि गोत्रोद्धाररूपकार्यस्यानुत्पत्तिरिह प्रतिपाद्यते, किन्तु विरुद्ध कार्योत्पत्तिरेवेति विभावनीयम् ।
( अलंकार चन्द्रिका पृ० १११ )