Book Title: Kuvayalanand
Author(s): Bholashankar Vyas
Publisher: Chowkhamba Vidyabhawan

View full book text
Previous | Next

Page 366
________________ रसबदलङ्कारः २६६ - अष्टौ प्रमाणालङ्काराः प्रत्यक्षप्रमुखाः क्रमात् ॥ एवं पञ्चदशान्यानप्यलङ्कारान् विदुर्बुधाः ॥ १७१ ॥ तत्र विभावानुभावव्यभिचारिभिरभिव्यञ्जितो रतिहासशोकादिश्चित्तवृत्तिविशेषो रसः, स यत्रापरस्याङ्गं भवति तत्र रसवदलङ्कारः। विभावानुभावाभ्यामभिव्यजितो निर्वेदादिस्त्रयस्त्रिंशभेदो देवतागुरुशिष्यद्विजपुत्रादावभि'व्यज्यमाना रतिश्च भावः । स यत्रापरस्याङ्गं तत्र प्रेयोलङ्कारः । अनौचित्येन प्रवृत्तो रसो भावश्च रसाभासो भावाभासश्चेत्युच्यते, स यत्रापरस्याहं तदूर्जस्वि । भावस्य प्रशाम्यदवस्था भावशान्तिः। तस्यापराङ्गत्वे समाहितम् । भावस्योद्गमावस्था भावोदयः । द्वंयोर्विरुद्धयो वयोः परस्परस्पर्धाभावो भावसन्धिः । बहूनां भावानां पूर्वपूर्वोपमर्दैनोत्पत्तिर्भावशबलता । एतेषामितराङ्गत्वे भावोद. याद्यास्त्रयोऽलंकाराः। १०१ तत्र रसवदलङ्कारः तत्र रसवदुदाहरणम् मुनिर्जयति योगीन्द्रो महात्मा कुम्भसम्भवः । येनैकचुलके दृष्टौ दिव्यौ तौ मत्स्यकच्छपौ।। आठ प्रत्यक्षादि प्रमाणों को भी काव्यालंकार माना जाता है। इस प्रकार आलंकारिक ऊपर वर्णित १०० अलंकारों से इतर इन १५ अलंकारों की भी गणना करते हैं। विभाव, अनुभाव, तथा व्यभिचारीभाव के द्वारा अभिव्यक्त रतिहासशोकादि वाली चित्तवृत्ति रस कहलाती है, यह रस जब किसी अन्य रस का अंग हो जाता है, तो वहाँ रसवत् अलंकर होता है। विभाव और अनुभाव के द्वारा अभिव्यक्त निवेदादि संचारिभाव तेंतीस प्रकार का होता है। देवता, गुरु, शिष्य. ब्राह्मण, पुत्र आदि के प्रति अभिव्यक्त रति भाव कहलाती है। यह रतिभाव जहाँ अन्य रतिभाव का अंग बन जाय, वहाँ प्रेय अलंकार होता है। अनौचित्य के द्वारा प्रवृत्त रस या भाव रसाभाव या भावाभास कहलाता है, वह जहाँ अन्य रसभावाभास का अंग हो, वहाँ उर्जस्वि अलंकार होता है। जहाँ कोई भाव की अवस्था शांत हो रही हो वह भावशान्ति है। जहाँ एक भावशांति अन्य का अंग हो वहाँ समाहित अलंकार होता है। किसी भाव के उत्पन्न होने की अवस्था को भावोदय करते हैं। जहाँ दो परस्पर विरोधीभाव एक ही काव्य में परस्पर स्पर्धा करते हुए वर्णित किये जायँ वहाँ भावसंधि होती है। जहाँ अनेक भाव एक साथ एक दूसरे को हटाते दुए उत्पन्न हों, वह भावशवलता है। इनके एक दूसरे के अंग बन जाने पर भावोदय, भावसंधि, भावशबलता नामक अलंकार होते हैं। (जहाँ ये अन्य के अंग नहीं बनते, वहाँ इनका ध्वनित्व होता है।) १०१. रसवत् अलंकार रसवत् का उदाहरण जैसे, 'उन योगिराज महात्मा अगस्त्यमुनि की जय हो, जिन्होंने केवल एक चुल्लू में ही . उन अलौकिक मस्त्य तथा कच्छप का दर्शन किया।'

Loading...

Page Navigation
1 ... 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394