________________
३०४
कुवलयानन्दः
उपसंहारः अमुं कुवलयानन्दमकरोदप्पदीक्षितः । नियोगाद्वेङ्कटपतेर्निरुपाधिकृपानिधेः ॥ १७१ ॥ चन्द्रालोको विजयतां शरदागमसंभवः ।।
हृद्यः कुवलयानन्दो यत्प्रसादादभूदयम् ॥ १७२ ।। इति श्रीमदद्वैतविद्याचार्यश्रीमद्भरद्वाजकुलजलधिकौस्तुभश्रीरङ्गराजाध्वरीन्द्रवरसूनोः श्रीमदप्पय्यदीक्षितस्य
कृतिः कुवलयानन्दः समाप्तः॥
हो जाते हैं, क्योंकि अतिशयोक्ति संकर की उसके अंगरूप में कोई आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार इस पद्य में चारों प्रकार के संकरों का परस्पर संकर पाया जाता है। इसी प्रकार अन्य उदाहरण भी दिये जा सकते हैं।
१७१-अप्पयदीक्षित ने निर्व्याज कृपा के समुद्र श्री वेंकटपति के आदेश से इस कुवलयानन्द की रचना की है।
१७२-शरदागमसंभव चन्द्रालोक नामक ग्रन्थ सर्वोत्कृष्ट है, जिसके कारण कुवलयानन्द सुन्दर बन सका। (शरत् ऋतु के आगमन वाला शरत्कालीन) चन्द्रमा का प्रकाश विजयी हो, जिसके कारण यह कुमुदिनी का सुन्दर विकास हो सका।)
चन्द्रालोके वियति वितते निर्मलद्युद्विताने,
जातःप्रेरणा किल कुवलयानन्द उत्फुल्लशोभः । मध्वाधारा' स्फुटपरिमला 'माकरन्दी' व तस्य
व्याख्या सैषा भवतु सुहृदां सम्यगास्वादनीया ॥ नयनेन्दुशून्ययुग्मे वर्षे श्रीविक्रमाङ्कदेवस्य ।
पूर्णा दीपावल्या व्याख्येयं कुवलयानन्दे ॥ श्रीमदप्पयदीक्षित की कृति कुवलयानन्द समाप्र हुआ।
१, मधुनः क्षौद्रस्य आधारः यस्यां सा। २. मकरन्दस्य इयं 'माकरन्दी' परागसरणिः, मकरन्दततिरिति ।