Book Title: Kuvayalanand
Author(s): Bholashankar Vyas
Publisher: Chowkhamba Vidyabhawan

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Page 380
________________ संकरालङ्कारः २६६ अत्र न्प्रट्यगृह-वापीपयसोः सत्पुष्करेत्यादिविशेषणे शब्दसाम्यं श्लेषः, 'अमन्दमारब्धे' त्यादिविशेषणेऽर्थसाम्यमुपमा, तदुभयमेकस्मिन्निवशब्देऽनुप्रविष्टमिति तदपि न मन्यामहे | सत्पुष्करेत्यादिविशेषणेऽपि श्लेषभित्तिकाभेदाध्यवसायरूपातिशयोक्तिलभ्यस्य धर्मसाम्यस्यैव तत्रेवशब्दप्रतिपाद्यतया शब्द. साम्यस्य तदप्रतिपाद्यत्वात् । श्लेषभित्तिकाभेदाध्यवसायेन धर्मसाम्यमतानली. कारे 'अहो रागवती सन्ध्या जहाति स्वयम्बरम्' इत्यादिश्लिष्टविशेषणसमासोक्त्युदाहरणे विशेषणसाम्याभावेन समासोक्त्यभावप्रसङ्गात् | शब्दसाम्यस्येव. शब्दप्रतिपाद्यत्वेऽपि तस्योपमावाचकत्वस्यैव प्राप्त्या श्लेषवाचकत्वाभावाच । शब्दतोऽर्थतो वा कविसंमतसाम्यप्रतिपादने सर्वविधेऽप्युपमालङ्कारस्वीकारात् । . इस उदाहरण में पूर्वपक्षी, जो केवल शब्दालङ्कार तथा अर्थालकार का ही एकवाचकानुप्रवेश संकर मानता है, श्लेष तथा उपमा का एकवाचकानुप्रवेश संकर मानेगा । उसके मत से यहाँ नाट्यगृह तथा बावलियों का जल (वापीपय) दोनों के लिए 'सत्पुष्करद्योतित. रंगशोभिनि' यह विशेषण दिया गया है, जिसका नाट्यगृह के पक्ष में 'सुंदर मृदंग से सशब्द रंगभूमि से 'सुशोभित' तथा वापीपय के पक्ष में 'सुंदर कमलों से सुशोभित तरंग वाला' अर्थ होता है, अतः यहाँ शब्दसाम्य होने के कारण श्लेष अलंकार है। इन्हीं के लिए 'अमन्दमारब्धमृदंगवाये' (जिसमें गंभीर ध्वनि से मृदंग तथा वाद्य बज रहे हैं) विशेषण का प्रयोग हुआ है, जो अर्थसाम्य के द्वारा उपमा की प्रतीति कराता है। ये दोनों शब्दालंकार श्लेष तथा अर्थालंकार उपमा एक ही वाचक शब्द 'इव' के द्वारा प्रतीत होते हैं, अतः यहाँ शब्दार्थालंकार का ही एकवाचकानुप्रवेश है। अप्पयदीक्षित इस मत को नहीं मानते (तदपि न मन्यामहे )। उनका मत यह है कि 'सत्पुष्कर' इत्यादि पद में जो श्लिष्ट विशेषण पाया जाता है उससे श्लेषानुप्राणित अभेदाध्यवसायरूपा अतिशयोक्ति अलंकार की प्रतीति होती है, यह अतिशयोक्ति जिस अर्थसाम्य की प्रतीति कराती है, वही 'इव' शब्द के द्वारा प्रतिपादित हुआ है, पूर्वपक्षी के मतानुसार शब्दसाम्य नहीं। क्योंकि 'इव' वाचक शब्द शब्दसाम्य की कभी प्रतीति नहीं करा पाता। यदि पूर्वपक्षी श्लेषानुप्राणित अभेदनिगरणरूपा अतिशयोक्ति से धर्मसाम्य की प्रतीति वाले मत को स्वीकार न करेगा, तो कई ऐसे स्थल होंगे जहाँ अलंकारप्रतीति न हो सकेगी। उदाहरण के लिये 'अहो रागवती सन्ध्या जहाति स्वयमम्बरम्। (१) अरे यह लालिमापूर्ण सन्ध्या स्वयं आकाश को छोड़ रही है; (२) अरे यह प्रेमभरी नायिका स्वयं वस्त्र का त्याग कर रही है, इस उक्ति में श्लिष्ट विशेषण के द्वारा समासोक्ति की प्रतीति कराई गई है। यदि यहाँ केवल शब्दसाम्य ही माना जायगा तथा अर्थसाम्य की अपेक्षा न की जायगी तो प्रेमानायिकागत अप्रस्तुत वृत्तान्त की प्रतीति न हो सकेगी, तथा यहाँ समासोक्ति अलंकार न मानने का प्रसंग उपस्थित होगा। जिस प्रकार इस उदाहरण में शब्दसाम्य के कारण अर्थसाम्य की प्रतीति मानना होगा, वैसे ही 'सत्पुष्कर०' इत्यादि उदाहरण में भी मानना होगा। यदि यह कहा जाय कि वहाँ 'इव' शब्द शब्दसाम्य का वाचक है, तो इव शब्द के द्वारा शब्दसाम्य की प्रतीति होने पर भी 'इव' वस्तुतः उपमा (अर्थालार) का ही वाचक शब्द है, श्लेष (शब्दालङ्कार) का नहीं। कवि चाहे शब्द के द्वारा साम्य प्रतीति कराये या अर्थ के द्वारा, दोनों ही स्थलों में उपमा अलङ्कार ही मानना होगा।। टिप्पणी-'सत्पुष्करयोतितरंग' इत्यादि पद्य के संबंध में अप्पयदीक्षित रुय्यक के मत से

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