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कुवलयानन्दः
अन्यथा
'यथा प्रह्लादनाचन्द्रः प्रतापात्तपनो यथा ।
तथैव सोऽभूदन्वर्थो राजा प्रकृतिरञ्जनात् ।।' इत्यत्राप्युपमा न स्यात् । न ह्यत्रान्वर्थनामरूपशब्दसाम्यं विना किञ्चिदथे। साम्यं कविविवक्षितमस्ति । तस्माद्यत्रकस्मिन्नर्थे प्रतिपाद्यमाने अलंकारद्वयलक्षणयोगादलंकारद्वयप्रतीतिस्तत्र तयोरलकारयोरेकवाचकानुप्रवेशः॥ यथा ( नैषध० २।६ )विधुकरपरिरम्भादात्तनिष्यन्दपूर्णैः
शशिदृषदुपक्लुप्तैरालवालस्तरूणाम् । विफलितजलसेकप्रक्रियागौरवेण
व्यरचि स हृतचित्तस्तत्र भैमीवनेन ॥ संतुष्ट नहीं। इसी प्रसंग में पहले टिप्पणी में उद्धृत रुय्यक के मत से स्पष्ट है कि अलंकारसर्वस्वकार 'सत्पुष्करद्योतितरंग' इत्यादि पद्य में शब्दार्थालंकार का, उपमा तथा शब्दश्लेष का एकवाचकानुप्रवेशसंकर मानते हैं । जब कि दीक्षित इस पद्य में श्लेषभित्तिक अध्यवसाय (अतिशयोक्ति) तथा उपमा इन दो अर्थालंकारों का एकवाचकानुप्रवेशसंकर मानते हैं । दीक्षित जी ने 'इति तदपि न मन्यामहे' के द्वारा रुय्यक के मत से ही अरुचि प्रदर्शित की है।
सिद्धान्तपक्षी पुनः अपने मत को पुष्ट करता कहता है, यदि पूर्वपक्षी इस मत को न मानेगा तो निम्न उदाहरण में उपमा अलंकार की प्रतीति ही न हो सकेगी।
'संसार को प्रसन्न रखने के कारण (प्रह्लादन करने के कारण) जैसे चन्द्रमा यथार्थ नामा है तथा संसार को तपाने के कारण तपन (सूर्य) यथार्थनामा है, वैसे ही वह राजा दिलीप प्रकृति का रञ्जन करने के कारण यथार्थरूप में राजा था।'
टिप्पणी-'चन्द्र' शब्द की व्युत्पत्ति 'चदिराह्लादने' धातु से हुई हैं-चन्दयति इति चन्द्रः, जो लोगों को आह्लादित करे। इसी तरह 'तपन' शब्द की व्युत्पत्ति 'तप' धातु से हुई है 'तपति इति तपनः' जो ताप करे, तपे। 'राजा' शब्द की व्युत्पत्ति 'रज' धातु से हुई है 'रायति (प्रजाः) इति राजा'। इस प्रकार व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ के अनुसार स्वभाव वाले होने के कारण तत्तत् चन्द्रादि अन्वर्थ ( यथार्थ ) हैं।
इस उदाहरण में अन्वर्थनामरूप शब्दसाम्य के बिना कोई अर्थसाम्य कवि को अभीष्ट नहीं है। अतः कोरे शब्दालंकार-अर्थालङ्कार का एकवाचकानुप्रवेशसंकर मानने वाला मत और कोरे अर्थालङ्कारों का एकवाचकानुप्रवेश संकर मानने वाला मत दोनों ही ठीक न होने के कारण हम एकवाचकानुप्रवेश संकर किन्हीं भी उन दो अलङ्कारों का मानते हैं, जहाँ एक अर्थ की प्रतीति के समय दो अलङ्कारों के लक्षण घटित होने के कारण दो अलङ्कारों की एक साथ प्रतीति हो।
जैसे,
'नैषधीयचरित के द्वितीय सर्ग का पद्य है। दमयन्ती के उस उपवन ने, जिसमें चन्द्रमा की किरणों के आलिंगन ( स्पर्श) से चूते हुए रस से भरे, चन्द्रकांतमणियों के घने वृक्षों के आलवाल के द्वारा वृक्षों की जलसेकक्रिया व्यर्थ हो गई थी, हंस का मन हर लिया (हंस को हृतचित्त बना दिया)।'