Book Title: Kuvayalanand
Author(s): Bholashankar Vyas
Publisher: Chowkhamba Vidyabhawan

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Page 370
________________ mms सङ्करालङ्कार. १२० समप्राधान्यसङ्करालङ्कारः 19 २८६ समप्राधान्यसंकरो यथा अवतु नः सवितुस्तुरगावली समतिलङ्घिततुङ्गपयोधरा । स्फुरितमध्यगतारुणनायका मरकतैकलतेव नभः श्रियः ॥ अत्र पयोधरादिशब्दश्लेषमूलातिशयोक्त्याङ्गभूतयोत्थाप्यमानैव सवितृतुरगावल्यां गगनलक्ष्मीमर कतै कावलीतादात्म्योत्प्रेक्षा नभोलक्ष्म्यां नायिकाव्यवहार• समारोपरूपसमासोक्तिगभैवोत्थाप्यते । पयोधरशब्दश्लेषस्यो भयोपकारकत्वात्, तत उत्प्रेक्षा समासोक्त्योरेकः कालः । परस्परापेक्षया चारुत्वसमुन्मेषश्चोभयोस्तुल्य इति विनिगमनाविरहात्समप्राधान्यम् । यथा वा, - अङ्गुलीभिरिव केशसमयं सन्निगृह्य तिमिरं मरीचिभिः । १२०. समप्राधान्यसंकर अलंकार जहाँ एक काव्य में अनेक अलंकार समान रूप से प्रधान हों तथा एक दूसरे के अंगांगी न हों, वहीँ समप्राधान्य संकर अलंकार होता है । जैसे I भगवान् सूर्य की वह तुरगपंक्ति हमलोगों की रक्षा करे, जो मानो आकाश-लक्ष्मी की वह मरकतमणिमय एकावली (हार) है, जिसने ऊँचे पयोधरों (मेघ, स्तन ) का उल्लंघन किया है और जो दीप्तिमान् मध्यस्थ अरुण ( सूर्य सारथि ) के द्वारा नियंत्रित है ( अत्यधिक प्रकाशमान् मध्यस्थ रक्ताभ नायक-मणि से युक्त है ) । यहाँ सबसे पहले पयोधर शब्द के लिष्ट प्रयोग से एकावलीगत पयोधर ( स्तन ) के द्वारा तुरगपंक्तिगत पयोधर (मेघ) का निगरण प्रतीत होता है, अतः यहाँ शब्द श्लेषमूला अतिशयोक्ति अलंकार है । यह अतिशयोक्ति अलंकार अंग बनकर सूर्य के घोड़ों की पंक्ति (सवितृतुरगावली ) पर आकाशलक्ष्मी की मरकतमय एकावली के तादात्म्य की संभावना करा है, इस प्रकार अतिशयोक्ति उत्प्रेक्षा अलंकार की प्रतीति में सहायक होती है । जिस समय यह उत्प्रेक्षा अलंकार प्रतीत होता है, ठीक उसी समय सहृदय को यह भी प्रतीति होती है कि यहाँ आकाश-लक्ष्मी पर चेतन नायिका के व्यवहार का समारोप कर दिया गया है । इस प्रकार प्रस्तुत आकाशलक्ष्मी के व्यवहार से अप्रस्तुत नायिका के व्यवहार की व्यंजना होती है, क्योंकि एकावलीधारण चेतन नायिका का ही धर्म है, अचेतन अकाशलक्ष्मी का नहीं । यह समासोक्ति उत्प्रेक्षा की प्रतीति के समय उसी के साथ घुल-मिली प्रतीत होती है। दूसरे शब्दों में हम यों कह सकते हैं कि उत्प्रेक्षा समा सोक्तिगर्भ (समासोक्किसंश्लिष्ट ) हो कर ही प्रतीत होती है। अतिशयोक्ति के द्वारा इस संश्लिष्ट रूप की प्रतीति इसलिए होती है कि 'पयोधर' शब्द का श्लिष्ट प्रयोग दोनों अलंकारों का उपस्कारक है, अतः उत्प्रेक्षा व समासोक्ति दोनों की प्रतीति एककालावच्छिन्न होती है । यदि ऐसा है, तो इन दोनों में एक अलंकार दूसरे अलंकार का अंग होगा, इस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि दोनों अलंकार एक दूसरे की अपेक्षा चमत्कार जनक हैं, तथा दोनों समानकोटिक हैं, अतः किसी एक अलंकार के दूसरे की अपेक्षा अधिक चमत्कारी न होने से दोनों का समप्राधान्य है । अथवा जैसे— 'यह चन्द्रमा अपनी किरणों से अन्धकार को पकड़ कर बन्द कमल की आंखों वाले १६ कुव०

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