Book Title: Kuvayalanand
Author(s): Bholashankar Vyas
Publisher: Chowkhamba Vidyabhawan

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Page 368
________________ ऊर्जस्व्यलकारः २७१ स्तानेतानपि बिभ्रती किमपि न श्रान्तासि तुभ्यं नमः। आश्चर्येण मुहुर्मुहुः स्तुतिमिति प्रस्तौमि यावद्भुव _ स्तावद्विभ्रदिमां स्मृतस्तव भुजौ वाचस्ततो मुद्रिताः। अत्र प्रभुविषयरतिभावस्य वसुमतीविषयरतिभावोऽङ्गम् ॥ ___ १०३ ऊर्जस्यलंकारः ऊर्जस्वि यथा,त्वत्प्रत्यर्थिवसुन्धरेशतरुणीः सन्त्रासतः सत्वरं यान्तीरि ! विलुण्ठितुं सरभसं याताः किराता वने । तिष्ठन्ति स्तिमिताः प्ररूढपुलकास्ते विस्मृतोपक्रमा. स्तासामुत्तरलैः स्तनैरतितरां लोलैरपाङ्गैरपि । अत्र प्रभुविषयरतिभावस्य शृङ्गाररसाभासोऽङ्गम् । यथा वा ___ त्वयि लोचनगोचरं गते सफलं जन्म नृसिंहभूपते !। भी नहीं थकती, तुम्हें नमस्कार है' मैं इस प्रकार बार-बार आश्चर्यचकित होकर पृथ्वी की स्तुति करता हूँ । राजन् , ज्योंही मैं पृथ्वी की अतुलभारक्षमता की प्रशंसा करने लगता हैं, त्योंही मुझे इस पृथ्वी को भी धारण करने वाले तुम्हारे भुजदण्डों की याद आ जाती है और तुम्हारे भुजों की अतुलभारक्षमता को देखकर तो मेरा आश्चर्य और बढ़ जाता है, मैं मूक हो जाता हूँ, तुम्हारी अलौकिक शक्ति की प्रशंसा करने के लिए मैं शब्द तक नहीं पाता, मेरी वाणी बन्द हो जाती है। यहाँ कवि का राजा के प्रति रतिभाव व्यंग्य हैं, साथ ही पृथ्वी के प्रति भी कवि का रतिभाव व्यंजित हो रहा है । इनमें राजविषयक रतिभाव अंगी है, पृथ्वीविषयक रतिभाव अंग । अतः भाव के अंग बन जाने के कारण यहाँ प्रेयस् अलंकार है। १०३. ऊर्जस्वि अलंकार उर्जस्वि अलंकार वहाँ होगा जहाँ रसाभास या भावाभास अंग हो जाय'हे वीर तुम्हारे डर से तेजी से वन में भगती हुई तुम्हारे शत्रु राजाओं की रमणियों को लूटने के लिए किरात लोगों ने तेजी से उनका पीछा किया। जब वे उनके पास पहुंचे तो उनके अत्यधिक चंचल स्तनों और लोल अपांगों से स्तब्ध और रोमांचित होकर वे किरात अपने वास्तविक कार्य (लूटमार करने) को भूल गये।' यहाँ कवि का अमीष्ट आश्रय राजा की वीरता की प्रशंसा करना है कि उसने सारे शत्रु राजाओं को जीत लिया है, और उनकी रमणियाँ डर के मारे जंगल-जंगल घूम रही हैं। यहाँ कवि का राजविषयक रतिभाव अंगी है। शत्रुनृपतरुणियों के सौंदर्य को देखकर किरातों का उनके प्रति मुग्ध हो जाना रसानौचित्य है, अतः यहाँ श्रृंगार रस का आभास है। यह शृंगाररसाभास राजविषयकरतिभाव का अंग है, अतः यहाँ ऊर्जस्वि अलंकार है। टिप्पणी-शृङ्गार रस वहाँ होता है जहाँ रतिभाव उभयनिष्ठ होता है, अनुभयनिष्ठ होने पर वह शृङ्गाराभास है। अथवा जैसे'हे राजन् , तुम्हारे शत्रु राजा युद्ध में तुमसे आदर पूर्वक यह निवेदन करते हैं-'हे

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