Book Title: Kuvayalanand
Author(s): Bholashankar Vyas
Publisher: Chowkhamba Vidyabhawan

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Page 375
________________ २६४ कुवलयानन्दः 'लिम्पतीव तमोऽङ्गानि' इतिवदुत्प्रेक्षाद्वयस्य संसृष्टिरेवेयमिति वाच्यम् । लौकिकसिद्धपेषणलेपनपौर्वापर्यच्छायानुकारिणोत्प्रेक्षाद्वयपौर्वापर्येण चारुतातिशयसमुन्मेषतः संसृष्टिवैषम्यात् । तस्माद्दर्शादिवदेकफलसाधनतया समप्रधानमिदमुत्प्रेक्षाद्वयम् । एवं समप्रधानसंकरोऽपि व्याख्यातः ।। १२१ सन्देहसङ्करालङ्कारः सन्देहसंकरो यथा ( रघु० ६।८५ ), शशिनमुपगतेयं कौमुदी मेघमुक्तं ___ जलनिधिमनुरूपं जझुकन्यावतीर्णा । इति समगुणयोगप्रीतयस्तत्र पौराः श्रवणकटु नृपाणामेकवाक्यं विववः ।। अत्र 'इयम्' इति सर्वनाम्ना यद्यजं वृतवतीन्दुमती विशिष्टरूपेण निर्दिश्यते 'लिम्पतीव' में संसृष्टि ही मान ली जाय । इस शंका का निराकरण करते हुए सिद्धांतपक्षी का कहना है कि ऐसा मत देना ठीक नहीं। क्योंकि यहाँ पेषण तथा लेपन का जो संकेत किया गया है, वह इस बात का संकेत करता है कि कवि लौकिक पेषणक्रिया तथा लेपनक्रिया के पौर्वापर्य की समानता व्यक्त करना चाहता है। इस प्रकार यहाँ इन दोनों उत्प्रेक्षाओं के काल में जो पौर्वापर्य पाया जाता है, वह लौकिक चन्दनपेषण तथा चन्दनलेपन के पौर्वापर्यं की तरह है। इसलिए यहाँ संसृष्टि की अपेक्षा अधिक चमत्कार पाया जाता है, अतः इसे संसृष्टि से भिन्न मानना होगा। (भाव यह है, जैसे कोई व्यक्ति पहले चन्दन पीसता है, फिर दूसरा व्यक्ति प्रेयसी आदि के उसका अंगराग लगाता है, इसी तरह समुद्र मानो चन्दन पीसता है और चन्द्रमा दिगंगनाओं को मानो चन्दन लेप कर रहा है यहाँ दोनों क्रियाएँ एक दूसरे के बाद होती हैं, यह लौकिक साम्य अलङ्कारद्वय के समावेश में विशेष चारुता ला देता है।) यद्यपि ये दोनों उत्प्रेक्षाएँ यहाँ एक दूसरे की अंगभूत नहीं तथापि एक ही चमत्कार के साधन होकर आई हैं, ठीक वैसे ही जैसे दर्शपूर्णमासादि अनेक याग एक ही स्वर्गप्राप्त्यादि फल के साधन होते हैं। अतः ये दोनों समप्रधान हैं। इस प्रकार समप्रधान संकर की व्याख्या की गई। १२१. संदेहसंकर अलंकार जहाँ किसी स्थल में अनेक अलंकारों का सन्देह हो, तथा अलंकारच्छाया ( अलंकार सौन्दर्य ) इस तरह की हो कि सहृदय की चित्तवृत्ति किसी विशेष अलङ्कार के निश्चय पर न पहुँच पाये-यहाँ अमुक अलङ्कार है अथवा अमुक-वहाँ सन्देह संकर होता है, जैसे रघुवंश के इन्दुमती स्वयंवर का प्रसंग है। इन्दुमती ने अज का वरण कर लिया है। इस सम्बन्ध में कवि की उक्ति है : समान गुणवाले अज तथा इन्दुमती के परस्पर योग से प्रसन्न पुरवासी स्वयंवर में आये हुए अन्य राजाओं के कानों को कटु लगने वाले इन शब्दों का उच्चारण करने लगे'यह (इन्दुमती) चन्द्रिका मेघयुक्त चन्द्रमा को प्राप्त हुई है, जह्नपुत्री गंगा अपने योग्य समुद्र को अवतीर्ण हो गई है। (यह इन्दुमती उसी प्रकार अज के साथ युक्त हुई है, जैसे चन्द्रिका मेघमुक्त चन्द्रमा के साथ और गंगा समुद्र के साथ ।) यहाँ पूर्वार्ध में कौन सा अलङ्कार है ? इस उक्ति में सम्भवतः निदर्शना हो सकती है,

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