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सङ्करालङ्कारः
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आभाति बालातपरक्तसानुः सनिझरोद्गार इवाद्रिराजः ॥' इत्याधुपमापि न निर्वहेत् । नपत्राद्रिराजपाण्डययोरुपमानोपमेययोरनुगतः साधारणधर्मो निर्दिष्टः । एकत्र बालातपनिझरो, अन्यत्र हरिचन्दनहाराविति धर्मभेदात् । तस्मात्तत्र बालातपहरिचन्दनयोर्निर्भरहारयोश्च सदृशयोरभेदांशोपजीवनमेव गतिः॥
'पिनष्टीव तरङ्गाप्रैः समुद्रः फेनचन्दनम् ।
__ तदादाय करैरिन्दुलिम्पतीव दिगङ्गनाः॥ इत्यत्रोत्प्रेक्षयोः कालभेदेऽपि समप्राधान्यम् । अन्योन्यनिरपेक्षवाक्यद्वयोपात्तत्वात् । तदादायेति फेनचन्दनरूपकमात्रोपजीवनेन पूर्वोत्प्रेक्षानपेक्षणात्। न चैवं राजा इसी तरह सुशोभित हो रहा है जैसे झरने के प्रवाह से सुशोभित, प्रातःकालीन सूर्य के प्रकाश से अरुणाभ तलहटियों वाला हिमालय पर्वत सशोभित होता है।'
इस उदाहरण में उपमा का निर्वाह न हो सकेगा क्योंकि यहाँ पर हिमालय (उपमान) तथा पाण्ड्यः ( उपमेय) के लिए जिस समानता का उपयोग किया है वह साधारणधर्म दोनों में नहीं पाया जाता। हिमालय के पक्ष में प्रातःकालीन सूर्य के प्रकाश तथा सरने का वर्णन है, पाण्ड्य के पक्ष में हरिचन्दन तथा हार का, इस प्रकार दोनों धर्म एक दूसरे से भिन्न हैं । इस प्रकार यहाँ भी उपमा अलंकार की प्रतीति के लिये हमें समानधर्म बालातप-हरिचन्दन तथा निहर-हार के अभेदांश-बालातप और हरिचन्दन दोनों लाल हैं तथा तत्तत् विषय को अवलिप्त करते हैं और निर्झर तथा हार दोनों स्वच्छ, तरल, आभामय तथा प्रलम्ब हैं-को ही लेना पड़ेगा। . ग्रन्थकार एक और उदाहरण देता है, जहाँ दो अलङ्कारों का समप्राधान्य पाया जाता है। इस उदाहरण में दो उत्प्रेक्षा अलङ्कारों की प्रतीति भिन्न-भिन्न काल में होती है तथापि ये दोनों काव्य में समानतया प्रधान हैं, अतः यहाँ भी समप्राधान्य संकर होगा
यह समुद्र अपनी लहरों के द्वारा मानो फेन रूपी चन्दन को पीस रहा है। उस फेन चन्दन को लेकर चन्द्रमा अपनी किरणों (हाथों) से मानो दिशारूपी रमणियों को अवलिप्त कर रहा है। ___यहाँ दो उत्प्रेक्षा हैं-'मानो पीस रहा है' (पिनष्टीव) और 'मानो लीप रहा है' (लिम्पतीव)। ये दोनों उत्प्रेक्षाएँ एक साथ क्रियाशील नहीं होती-पहले पेषणक्रिया होती है, फिर लेपन क्रिया। अतः दोनों में काल भेद है। इतना होने पर दोनों सम प्रधान हैं, क्योंकि कवि ने दोनों का प्रयोग एक वाक्य में न कर दो भिन्न वाक्यों में किया है, तथा प्रत्येक वाक्य एक दूसरे से स्वतन्त्र (निरपेक्ष) हैं। क्योंकि दूसरी उत्प्रेक्षा (मानो वह लीप रहा है) जिसकी प्रतीति 'तदादाय' आदि उत्तरार्ध से होती है, पूर्वार्ध में उक्त 'फेनचन्दन' परक रूपक अलङ्कार मात्र के द्वारा पुष्ट होती है, इसका 'पिनष्टीव' वाली उत्प्रेक्षा से कोई संबंध नहीं है और पहली उत्प्रेक्षा से वह स्वतन्त्र है। इस पर पूर्वपकी यह शंका करता है कि यदि ये दोनों उत्प्रेक्षाएँ एक दूसरे से निरपेक्ष हैं, तो फिर इनका शंकर मानना ठीक नहीं होगा। जैसे 'लिम्पतीव तमोगानि वर्षतीवांजनं नमः' इस उदाहरण में 'अन्धकार मानो अंगों को लीप रहा है, आकाश मानो काजल की वर्षा कर रहा है। इन दो उत्प्रेक्षाओं का संकर न मान कर संसृष्टि मानी जाती है, वैसे यहाँ भी 'पिनष्टीव' तथा