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सकरालङ्कारः
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तदा बिम्बप्रतिबिम्बभावापन्नधर्मविशिष्टयोः सदृशयोरैक्यारोपरूपा निदर्शना । यदि तेन सा स्वरूपेणैव निर्दिश्यते, बिम्बभूतोधर्मस्तु पूर्वप्रस्तावात्समगुणयोगप्रीतय इति पौरविशेषणाचावगम्यते, तदा प्रस्तुते धर्मिणि तवृत्तान्तप्रतिबिम्बभूताप्रस्तुतवृत्तान्तारोपरूपं ललितमित्यनध्यवसायात् सन्देहः ।। यथा वा
विलीयेन्दुः साक्षादमृतरसवापी यदि भवेत्
___ कलंकस्तत्रत्यो यदि च विकचेन्दीवरवनम् । ततः स्नानक्रीडाजनितजडभावैरवयवैः ।
कदाचिन्मुश्चेयं मदनशिखिपीडापरिभवम् ।। अत्र 'यद्येतावत्साधनं संपद्येत तदा तापः शाम्यति' इत्यर्थे कविसंरम्भश्वेत्तदै. तदुपात्तसिद्धयर्थमूह इति संभावनालंकारः । एतावत्साधनं कदापिन संभवत्येव, क्योंकि यदि 'इयं' (यह) इस सर्वनाम के द्वारा 'अज का वरण करती हुई इन्दुमती' इस विशिष्टधर्मयुक्त इन्दुमती का संकेत किया गया है, तो बिंबप्रतिबिंबभाववाले धर्म (गुण) से विशिष्ट सदृश पदार्थों-इन्दुमती-चन्द्रिका; इन्दुमती-गंगा में ऐक्य का आरोप व्यंजित होता है, अतः यहाँ निदर्शना अलंकार है। किंतु यदि इन्दुमती का वर्णन विशिष्टधर्मसम्पन्न रूप में न कर सामान्यरूप में किया गया है, तो बिबभूत धर्म की प्रतीति प्रसंग के पूर्व वर्णन से तथा पुरवासियों के साथ प्रयुक्त 'समगुणयोगप्रीतयः' इस विशेषण से हो जाती है। ऐसी स्थिति में प्रस्तुत धर्मी (इन्दुमती) में उससे संबर वृत्तान्त (अजइन्दुमतीयोग) के प्रतिबिंबभूत अप्रस्तुतवृत्तान्त (चन्द्रचन्द्रिकायोग, बल निधिजह्वकन्यायोग) का आरोप करने के कारण यहाँ ललित अलंकार माना जायगा। अतः सहृदय किसी निश्चय पर नही पहुँच पाता कि यहाँ निदर्शना माने या ललित। इसलिए यहाँ संदेह संकर है।
अथवा जैसे निन्न उदाहरण में
कोई विरहिणी या विरही कामज्वाला से दग्ध अपनी अवस्था का वर्णन कर रहा है। यदि स्वयं चन्द्रमा ही पिघल कर अमृत रस की बावली बन जाय और उसके अन्दर का कलंक विकसित कमलों का वन (समूह) हो जाय, तो उस बावली में साम करने से शीतल अंगों से मैं कभी न कभी कामदेव रूपी अग्नि की ज्वाला को छोड़ सकता हूँ। भाव यह है, मेरी यह कामज्वाला तभी समाप्त हो सकती है, जब मैं स्वयं चन्द्रमा के पिघलने से बनी अमृतरसवापी में स्नान करूँ।
यहाँ यदि इतना साधन मिल जाय, तो मेरा ताप शान्त हो सकता है-यदि इस भाव की व्यअना करना कवि को अभीष्ट है, तो किसी लक्ष्य की सिद्धि का तर्क (जह) करने के कारण संभावना अलंकार माना जायगा। किंतु यदि इस पद्य में कवि का आशय यह हो-कि इतना साधन (चन्द्रमा का गल कर अमृतरसवापी बन जाना तथा कलक का इन्दीवर बन हो जाना) कभी भी संभव नहीं है, इसलिए मेरी तापशांति भी न हो सकेगी, वह आकाशकुसुम के सदृश असम्भाव्य है-तो उपात्त वस्तु के मिथ्यात्व की सिद्धि के कारण अन्य मिथ्या अर्थ की कल्पना की गई है, अतः यहाँ मिथ्याध्यवसिति अलकार