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कुवलयानन्दः
अजनिष्ट ममेति सादरं युधि विज्ञापयति द्विषां गणः ॥
अत्र कवेः प्रभुविषयस्य रतिभावस्य तद्विषयद्विषद्गुणरतिरूपो भावाभासोऽङ्गम् ॥ १०४ समाहितालङ्कारः
समाहितं यथा
पश्यामः किमियं प्रपद्यत इति स्थैर्यं मयालम्बितं
किं र्मा नालपतीत्ययं खलु शठः कोपस्तयाप्याश्रितः । इत्यन्योन्यविलक्षदृष्टिचतुरे तस्मिन्नवस्थान्तरे
व्याजं हसितं मया धृतिहरो मुक्तस्तु बाष्पस्तया || अत्र शृङ्गारस्य कोपशान्तिरङ्गम् ||
१०५ भावोदयालङ्कारः
भावोदयो यथा ( नैषध० ९१६६ ) -
तदद्य विश्रम्य दयालुरेधि मे दिनं निनीषामि भवद्विलोकिनी । अदर्शि पादेन विलिख्य पत्रिणा तवैव रूपेण समः स मस्त्रियः ॥
नृसिंहराज, तुम्हें देखने पर मेरा जन्म सफल हो गया है- तुम्हारे जैसे वीर के दर्शन हमारे सौभाग्य के सूचक हैं' ।
यहाँ कवि की राजविषयक रति (भाव) व्यञ्जित हो रही है। इसी सम्बन्ध में राजा के शत्रुओं के द्वारा की गई राजविषयकरति के आभास की भी व्यंजना हो रही है । यह द्वितीय रतिभाव का आभास प्रथम रतिभाव का अंग है। अतः यहाँ ऊर्जस्वि अलंकार है । टिप्पणी - शत्रु राजा के प्रति रति होना अनुचित है, अतः यहाँ रतिभाव न होकर रतिभावाभास है ।
१०४. समाहित अलंकार
जहाँ भावशांति अंग बन कर आये, वहाँ समाहित अलंकार होता है, जैसे,
कोई नायक अपने मित्र से प्रणयकोप का किस्सा सुना रहा है। नायक और नायिका एक दूसरे पर कोप करके बैठे हैं। नायक यह सोच कर कि देखें यह नायिका क्या करती है, चुप्पी साध लेता है और नायिका का मान-मनौवन नहीं करता । जब नायक बिलकुल चुप्पी साध लेता है तो नायिका यह सोच कर कि यह दुष्ट मुझसे क्यों नहीं बोलता है और अधिक कुपित हो जाती है। इस प्रकार चुप्पी साध कर दोनों एक दूसरे को बिना किसी लक्ष्य के दृष्टि से देखते रहते हैं। इसी अवस्था के बीच नायक किसी बहाने से ( किसी अन्य कारण से ) हँस देता है। बस फिर क्या है, नायिका के आँसू का बाँध टूट जाता है और वह जोरों से रो पड़ती है ।
यहाँ नायिका के कोप नामक संचारीभाव की शांति हो रही है। यह भावशांति इस काय के अंगीरस श्रृंगार का अंग है, अतः यहाँ समाहित अलंकार है ।
१०५. भावोदय अलंकार
जहाँ भावोदय रसादि का अंग बने वहाँ भावोदय अलंकार होता है, जैसेइन्द्रादि देवताओं के दूत बनकर आये हुए नल से दमयन्ती कह रही है - 'हे दूत, तुम अब शान्त होकर मेरे प्रति दयालु बनो; मैं तुम्हें देखती हुई अपना दिन बिता देना चाहती