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कुवलयानन्दः
अत्र मुनिविषयरतिरूपस्य भावस्याद्भुतरसोऽङ्गम् । यथा वा
अयं स रशनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दनः।
नाभ्यूरुजघनस्पर्शी निवीविषेसनः करः ।। अत्र करुणस्य शृङ्गारोऽङ्गम् ॥
१०२ प्रेयोलङ्कारः प्रेयोलङ्कार एव भावालङ्कार उच्यते । स यथा ( गं० लं० )
कदा वाराणस्याममरतटिनीरोधसि वसन्
वसानः कौपीनं शिरसि निदधानोऽश्चलिपुटम् । अये गौरीनाथ त्रिपुरहर शम्भो त्रिनयन !
प्रसीदेत्याक्रोशनिमिषमिव नेष्यामि दिवसान् ।। अत्र शान्तिरसस्य 'कदा' इतिपदसूचितश्चिन्ताख्यो व्यभिचारिभावोऽङ्गम् । यथा वा
अत्युच्चाः परितः स्फुरन्ति गिरयः स्फारास्तथाम्भोधय. यहाँ एक चुल्ल में अलौकिक मस्त्य, कच्छप का दर्शन अद्भुत रस की व्यञ्जना कराता है, यह अद्भुतरस मुनिविषयक रतिभाव का अंग बनकर अगस्त्य मुनि की वंदना में पर्यवसित हो रहा है। अतः अद्भुतरस के अंग बन जाने के कारण यहाँ रसवत् अलंकार है । अथवा जैसे,
'यह वही (भूरिश्रवा का) हाथ है, जो करधनी को खींचता था, पुष्ट स्तनों का मर्दन करता था, नाभि, उरु तथा जघन का स्पर्श करता था और नीवी को ढीला कर देता था।'
यहाँ महाभारत के युद्ध में मरे हुए राजा भूरिश्रवा की पत्नियाँ विलाप कर रही हैं। विलाप के समय वे उसके हाथ को देखकर उसकी शृङ्गार लीलाओं का स्मरण करने लगती हैं। इस उदाहरण में प्रमुख रस करुण है और शृङ्गार उसका अंग बन गया है, अतः यहाँ भी पूर्वोक्त उदाहरण की भाँति रसवत् अलंकार ही है।
१०२. प्रेयस् अलंकार प्रेयस अलंकार को ही भाव अलंकार कहा जाता है। उदाहरण के लिए,
वह दिन कब आयगा, जन मैं वाराणसी में गंगा के तट पर रहता हुआ, कौपीन लगाकर, सिर पर प्रणामार्थ अञ्जलि धारण किये, 'हे भगवान् , हे पार्वती के पति, त्रिपुर का नाश करने वाले त्रिनयन महादेव, मेरे ऊपर प्रसन्न होओ' इस प्रकार चिल्लाता हुआ अपने जीवन के दिनों को क्षण की तरह व्यतीत करूंगा।'
यहाँ शांतरस की व्यंजना हो रही है। इसी उदाहरण में 'कदा' (वह दिन कब आयगा) इस पद के द्वारा चिन्ता नामक व्यभिचारीभाव की व्यंजना हो रही है। यह 'चिन्ता' व्यभिचारीभाव शान्तरस का अंग है, अतः यहाँ प्रेयस अलंकार है। अथवा जैसे,
'चारों ओर बड़े बड़े पहाड़ उठे हुए हैं, विशाल समुद्र लहरा रहे हैं, हे भगवति पृथ्वि, इन महान् पर्वतों और विशाल सागरों को धारण करते हुए भी तुम किंचिन्मात्र