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अत्र च कार्यावश्यंभावतच्छेत्यादिप्रत्यायनार्थः कार्यकारणाभेदव्यपदेशः । रूपके सादृश्यादभेदव्यपदेशः । इह कार्यकारणभावादिति भेदः ॥
यथा वा, -
कुवलयानन्दः
आयुर्दानमहोत्सवस्य बिनतक्षोणीभृतां मूर्तिमान्
विश्वासो नयनोत्सवो मृगदृशां कीर्तेः प्रकाशः परः । आनन्दः कलिताकृतिः सुमनसां वीरश्रियो जीवितं धर्मस्यैष निकेतनं विजयते वीरः कलिङ्गेश्वरः ॥ अत्र दानमहोत्सवायुष्करत्वादिनाऽध्यवसिते राज्ञि तदायुष्ट्रा दिव्यपदेशः || १६८ || इथं शतमलङ्कारा लक्षयित्वा निदर्शिताः । प्रचामाधुनिकानां च मतान्यालोच्य सर्वतः ।। १६९ ॥ अथ रसवदाद्यलंकारा:
रसभावतदाभासभावशान्तिनिबन्धनाः
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चत्वारो रसवत्प्रेय ऊर्जस्वि च समाहितम् ॥ १७० ॥ भावस्य चोदयः सन्धिः शबलत्वमिति त्रयः ।
यहाँ कार्य तथा कारण में अभेदस्थापना इसलिए की गई है कि तत्तत् कारण से तत्तत् कार्य अवश्य तथा शीघ्र ही होने वाला है । वेंकटराज के कृपाकटाक्ष से विद्वानों को निश्चय ही शीघ्रतया लक्ष्मीप्राप्ति होगी, इस भाव के लिए दोनों में अभिन्नता स्थापित की गई है। रूपक तथा हेतु में यह भेद है कि वहाँ सादृश्य के कारण अभेद स्थापित किया जाता है, जब कि हेतु में यह अभेद कार्यकारणभाव के कारण स्थापित किया जाता है।
हेतु के इस भेद का उदाहरण निम्न पथ है --
वीर कलिंगराज की जय हो, वे नम्र राजाओं के लिए दानमहोत्सव की आयु हैं, रमणियों के लिए नेत्रों को आनंद देनेवाले मूर्तिमान् विश्वास हैं। कीर्ति के दूसरे प्रकाश हैं, देवताओं ( या सज्जनों ) के लिए साकार आनंद हैं, जयलक्ष्मी के जीवन हैं, तथा धर्म के निवास स्थान हैं ।
यहाँ कलिंगराज दानमहोत्सव में आयु देने वाले हैं, इस कार्य के द्वारा राजा ( कारण ) के साथ अभेद स्थापित कर दिया गया है, इस प्रकार उसको ही 'आयु' बता दिया गया है।
(यहाँ कार्यकारणभाव को लेकर आने वाली प्रयोजनवता लक्षणा का बीजरूप में होना जरूरी है। इसमें ठीक वही सरणि पाई जाती है, जो 'आयुर्धृतम्' वाली लक्षणा में । )
१६९ - इस प्रकार प्राचीन तथा नवीन आलंकारिकों के मतों की आलोचना करते हुए सौ अलंकारों का लक्षण देकर उनके उदाहरण उपन्यस्त किये गये हैं ।
रसवत् श्रादि अलङ्कार
१७० – रस, भाव, रसाभास - भावाभास और भावशान्ति क्रमशः रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वि तथा समाहित ये चार अलंकार होते हैं । इनके अतिरिक्त भावोदय, भावसंधि तथा भावशबलता ये तीन अलंकार भी होते हैं। भावपरक इन सात अलंकारों से भिन्न