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कुवलयानन्दः
पुरुषार्थपुत्रलाभावश्यंभावगर्भतया दशरथेनेष्टत्वेन समर्थितत्वात् । यत्र केनचिस्वेष्टसिद्ध्यर्थं नियोक्तेनान्येन नियोक्तरिष्टमुपेक्ष्य स्वस्यैवेष्टं साध्यते तत्रापीष्टानवाप्तिरूपमेव विषमम् | यथा
यं प्रति प्रेषिता दुती तस्मिन्नेव लयं गता।
सख्यः ! पश्यत मौढ्यं मे विपाकं वा विधेरमुम् ।। 'तस्मिन्नेव लयं गता' इति नायके दूत्याः स्वाच्छन्द्यं दर्शितम् | यथा वा
नपुंसकमिति ज्ञात्वा प्रियायै प्रेषितं मनः ।
तत्तु तत्रैव रमते हताः पाणिनिना वयम् ॥ एतानि सर्वथैवेष्टानवाप्तेरुदाहरणानि | कदाचिदिष्टावाप्तिपूर्वकतदनवाप्तिर्यथा मदीये वरदराजस्तवे
भानुर्निशासु भवदढिमयूखशोभा
लोभात् प्रताप्य किरणोत्करमाप्रभातम् । तत्रोद्धृते हुतवहात्क्षणलुप्तरागे
तापं भजत्यनुदिनं स हि मन्दतापः॥ अनिष्ट प्रापण) की प्राप्ति नहीं होती (क्योंकि वह उसे कृपा कह रहा है), अतः यहाँ परानिष्टप्रापणरूप इष्टानवाप्ति है। क्योंकि दशरथ ने अपने लिए अनिष्ट मुनिशाप को भी इसलिए इष्ट समझा है कि उससे दशरथ को महापुरुषार्थी पुत्र का लाभ अवश्य होगा, यह प्रतीत होता है। जहाँ किसी व्यक्ति के द्वारा अपनी इष्टसिद्धि के लिये कोई व्यक्ति नियुक्त किया जाय और यह व्यक्ति नियोक्ता की इष्टसिद्धि की उपेक्षा कर अपनी ही इष्टसिद्धि करे वहाँ भी इष्टानवाप्तिरूप विषम अलङ्कार होता है, जैसे:
हे सखियो, देखो जिसके पास मैंने दूती को भेजा था। उसी में जाकर वह लीन हो गई । मेरी मूर्खता या दैव के इस दुर्विपाक को तो देखो।' ___ यहाँ 'तस्मिन्नेव लयं गता' के द्वारा नायिका इस बात का संकेत कर रही है कि दूती ने नायक के साथ स्वच्छन्दता (रमण) की है। अथवा जैसे
'पाणिनि व्याकरण के अनुसार 'मन' को नपुंसक समझकर हमने उसे दूत बनाकर प्रिया के पास भेजा था, किन्तु वह स्वयं वहीं रमण करने लगा। पाणिनि ने सचमुच हमें मार ही डाला।'
ये सब इष्टानवाप्ति के ही उदाहरण हैं।
कहीं-कहीं इष्टप्राप्ति के बाद इष्टानवाप्ति पाई जाती है, जैसे दीक्षित के ही वरदराजस्तव के निम्नपद्यों में
हे भगवन् , यह सूर्य आपके चरण किरणों की शोभा को प्राप्त करने के लोभ से हर रात शाम से लेकर प्राप्तःकाल तक अपनी किरणों के समूह को आग में तपाता है। प्रातःकाल के समय अपनी किरणों को आग में से निकालकर क्षण भर में अग्नि सम्पर्कजनित रक्तिमा को खोकर यह मन्दताप सूर्य प्रतिदिन सन्ताप (दुःख) का अनुभव करता रहता है।