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कुवलयानन्दः
पूर्वत्र कारणस्वभावानुरूप्यं कार्यस्यात्रागन्तुकतदीयदुष्टसंसर्गानुरूप्यमिति भेदः ।। १२॥
विनाऽनिष्टं च तसिद्धिर्यमथं कर्तुमुद्यतः ।
युक्तो वारणलाभोऽयं स्यान्न ते वारणार्थिनः ॥ १३ ॥ इष्टं सममनिष्टस्याप्यवाप्तिश्चेत्यपिसंगृहीतस्य त्रिविधस्यापि विषमस्य प्रतिद्वन्द्वि, इष्टावाप्तेरनिष्टस्याप्रसङ्गाच्च । अत्र गजार्थित या राजानमुपसर्पन्तं तद्दौवारिकवोयमाणं प्रति नर्मवचनमुदाहरणम् । न चात्र निवारणमनिष्टमापन्नमित्यनुदा. हरणत्वं शङ्कनीयम् । राजद्वारि क्षणनिवारणं संभावितमिति तदङ्गीकृत्य प्रवृत्तस्य विषमालङ्कारोदाहरणेष्विवातर्कितोत्कटानिष्टापत्त्यभावात् । किं च यत्रातर्कितोत्क टानिष्टसत्त्वेऽपि श्लेषमहिम्नेष्टार्थत्वप्रतीतिस्तत्रापि समालङ्कारोऽप्रतिहत एव ।
राहु दैत्य के मुखविष की अन्तरंगता को प्राप्त हुआ है-वही यह चन्द्रमा मुझे अपनी किरणों से तपा रहा है, तो यह न्यायप्राप्त ( उचित) ही है।
पहले उदाहरण में इससे यह भेद है कि वहाँ कारण के स्वभाव के अनुरूप कार्य का निबंधन किया गया है, जब कि यहाँ आगंतुक कारण-चन्द्रमा के दुष्टसंसर्ग के अनुरूप कार्य का निबंधन किया गया है।
९३-जहाँ किसी वस्तु की प्राप्ति के लिये कार्य को करने के लिये उद्यत व्यक्ति को उस वस्तु की प्राप्ति बिना किसी अनिष्ट के हो जाय, वहाँ भी सम अलंकार होता है । जैसे कोई व्यक्ति राजद्वार पर फटकार खाए हुए व्यक्ति से मजाक में कह रहा है:-ठीक है, वारण (हाथी) की इच्छा वाले तुम्हें यह वारणलाभ ठीक ही तो है न । ___ यह सम अलंकार 'अनिष्टस्यावाप्तिश्च' इत्यादि के द्वारा संगृहीत विविध विषम कातीसरे प्रकार के विषम के तीन अवांतर उपभेदों का-प्रतिद्वन्द्वी है, क्योंकि यहाँ इष्टावाप्ति पाई जाती है तथा अनिष्ट की प्राप्ति का कोई प्रसंग नहीं। इस पद्य के उत्तरार्द्ध में हाथी पाने की इच्छा से राजा के पास जाते हुए राजद्वार पर द्वारपालों द्वारा रोके गए व्यक्ति के प्रति किसी अन्य व्यक्ति का नर्मवचन (परिहासोक्ति) पाया जाता है। यहाँ द्वारपालों द्वारा रोका जाना अनिष्ट है. अतः यह सम के इस भेद का उदाहरण नहीं हो सकता, ऐसी शंका करना ठीक नहीं। राजद्वार पर क्षण भर निवारण की संभावना करके ही वह व्यक्ति उस कार्य में प्रवृत्त हुआ था, अतः राजद्वार पर हुआ निवारण विषम अलंकार के उदाहरणों की तरह अतर्कित (असंभावित) उत्कट आनष्ट की आपत्ति नहीं है। अपितु जहाँ असंभावित अनिष्ट होने पर श्लेप के कारण इष्ट अर्थ की प्रतीति होती हो, वहाँ भी सम अलंकार में कोई बाधा नहीं आती।
टिप्पणी-लंगारसर्वस्वकार रुय्यक ने सम अलंकार के तीन प्रकार ना माने हे, जसा कि दाक्षित ने माना है। करयक ने सिर्फ 'निरूपयोः संघटना' वाले विषम का प्रतिद्वन्द्वी एक ही प्रकार का सम ( अनुरूपयोः संघटना) माना है।
'यद्यपि विषमस्य भेदत्रयमुक्तं तथापि तच्छब्देन संभवादन्त्यो भेदः परामृश्यते । पूर्व भेदद्वयविपर्ययस्यानलंकारत्वात् । अन्त्यभेदविपर्ययस्तु चारुत्वात्समाख्योऽलंकारः। स चाभिरूपानभिरूपत्वेन द्विविधः। ( अलंकारसर्वस्व पृ० १६७)