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अर्थान्तरन्यासालङ्कारः
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त्वेऽपि सामान्यं विशेषेण समर्थनमपेक्षत एव 'निर्विशेषं न सामान्यम्' इति न्यायेन 'बहूनामप्यसाराणां संयोगः कार्यसाधकः' इत्यादिसामान्यस्य 'तृणैरारभ्यते रज्जुस्तया नागोऽपि बध्यते' इत्यादि सम्प्रतिपन्नविशेषावतरणं विना बुद्धौ प्रतिष्ठितत्वासम्भवात् ।।
न च तत्र सामान्यस्य 'कासां न सौभाग्यगुणोऽङ्गनानाम्' इत्यादिविशेषसमर्थनार्थसामान्यस्येव लोकसम्प्रतिपन्नतया विशेषावतरणं विनैव बद्धौ प्रतिष्टि तत्वं सम्भवतीति श्लोके तन्यसनं नापेक्षितमस्तीति वाच्यम् ; सामान्यस्य सर्वत्र लोकसम्प्रतिपन्नत्वनियमाभावात् । न हि 'यो यो धूमवान् स सोऽग्निमान्' इति व्याप्तिरूपसामान्यस्य लोकसम्प्रतिपन्नतया 'यथा महान सः' इति तद्विशेषरूपदृष्टान्तानुपादानसम्भवमात्रेणाप्रसिद्धव्याप्तिरूपसामान्योपन्यासेऽपितद्विशेषरूपदृष्टान्तोपन्यासनैरपेक्ष्यं सम्भवति । न चैवं सामान्येन विशेषसमर्थनस्थलेऽपि कचित्तस्य सामान्यस्य लोकप्रसिद्धत्वाभावेन तस्य बुद्धावारोहाय पुनर्विशेषान्त. जहाँ सामान्य की प्रतीति श्रोतृबुद्धि में तभी हो पाती है, जब किसी सम्बद्ध विशेष उक्ति . का प्रयोग न किया गया हो। उदाहरण के लिए 'अनेकों निर्बल ब्यक्तियों का संगठन भी कार्य में सफल होता है' इस सामान्य उक्ति की प्रतीति बुद्धि में तब तक प्रतिष्ठित नहीं हो पाती, जब तक कि 'रस्सी तिनकों के समूह से बनाई जाती है, पर उससे हाथी भी बाँध लिया जाता है' इस सम्बद्ध विशेष उक्ति का विन्यास नहीं किया जाता। ___ अप्पयदीक्षित पुनः पूर्वपक्षी की दलीलें देकर उसका खण्डन करते हैं। 'कासां न सौभाग्यगुणोऽगनानां' इस उक्ति में सामान्य के द्वारा विशेष का समर्थन किया गया है, क्योंकि सामान्य लोकप्रसिद्ध होता है, इसी तरह जहाँ समर्थनीयवाक्य सामान्यरूप हो, वहाँ वह विशेष उक्ति के उपन्यास के बिना भी बुद्धि में प्रतीत हो जायगा, इसलिए सामान्य उक्ति के लिए विशेष उक्ति के द्वारा समर्थन सर्वथा अपेक्षित नहीं है-यह पूर्वपक्षी की दलील ठीक नहीं जान पड़ती। क्योंकि सामान्य सदा ही लोकप्रसिद्ध ही हो ऐसा कोई नियम नहीं है। न्याय की अनुमानप्रणाली में हम देखते हैं कि जहाँ धुएँ को देखकर पर्वत में अग्नि का अनुमान किया जाता है, वहाँ 'जहाँ जहाँ धुओं है (जो जो धूमवान् है), वहाँ वहाँ आग होती है (वह वह अग्निमान् होता है) यह व्याप्तिरूप सामान्य लोकप्रसिद्ध है, किंतु इसके लिए भी विशेष रूप दृष्टान्त 'जैसे रसोईघर' (यथा महानसः) इसकी अपेक्षा होती ही है । इस विशेष रूप दृष्टान्त के प्रयोग के बिना उसकी प्रतीति नहीं हो पाती। सामान्य उक्ति को ठीक उसी तरह निरपेक्ष नहीं माना जा सकता, जैसे किसी अप्रसिद्ध व्याप्तिरूप सामान्य के उपादान के लिए (अनुमिति के लिए) उसके दृष्टान्त रूप विशेष का उपन्यास अपेक्षित होता है। जैसे व्याप्तिसंबंध को पुष्ट करने के लिए दृष्टान्त रूप सपक्ष ( या व्यतिरेक व्याप्ति में दृष्टान्त रूप विपक्ष) की निरपेक्षा नहीं होती, वैसे ही अर्थान्तरन्यास में भी सामान्य उक्ति के लिए विशेष उक्ति अपेक्षित होती है, उसमें नैरपेक्ष्य ( अपेक्षारहितता) संभव नहीं। (पूर्वपक्षी को फिर एक शंका होती है, उसका संकेत कर खण्डन किया जाता है।) यदि ऐसा है, तो फिर जिन स्थलों में कवि ने विशेष उक्ति के समर्थन के लिए सामान्य उक्ति का प्रयोग किया है, वहाँ भी पुनः सामान्य के समर्थन के लिए अन्य विशेष उक्ति का उपन्यास अपेक्षित होगा, क्योंकि कई स्थलों पर सामान्य लोक प्रसिद्ध न होने के कारण श्रोतृबुद्धिस्थ नहीं