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अर्थान्तरन्यासालङ्कारः
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नन्वय्यप्रस्तुताभिधानं युज्यते । न तावदप्रस्तुतप्रशंसायामिव प्रस्तुतव्यञ्जकतया, प्रस्तुतयोरपि विशेषसामान्ययोः स्वशब्दोपात्तत्वात | नाप्यनुमानालंकार इव प्रस्तुतप्रतीतिजनकतया तद्वदिह व्याप्तिपक्षधर्मताद्यभावात् । नापि दृष्टान्तालंकार इव उपमानतया,
'विस्रब्धघातदोषः स्ववधाय खलस्य वीरकोपकरः ।
वनतरुभङ्गध्वनिरिव हरिनिद्रातस्करः करिणः ।।' इत्यादिषु सामान्ये विशेषस्योपमानत्वदर्शनेऽपि विशेषे सामान्यस्य कचिदपि तददर्शनात् , उपमानतया तदन्वये सामञ्जस्याप्रतीतेश्च । तस्मात् प्रस्तुतसमर्थकतयैवाप्रस्तुतस्योपयोग इहापि वक्तव्यः। ततश्च वाक्यार्थहेतुकं काव्यलिङ्गमेप्रस्तुत स्वशब्दवाच्य नहीं होता। जब कि इन स्थलों में प्रस्तुत रूप विशेष-सामान्य का भी अप्रस्तुत रूप सामान्य विशेष के साथ साथ स्वशब्दोपात्तत्व (वाच्यत्व)पाया जाता है। अतः वह व्यंग्य नहीं रह कर, वाच्य हो गया है। इसलिए इन स्थलों में अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार नहीं हो सकता। साथ ही यहाँ अप्रस्तुत का प्रयोग प्रस्तुत की अनुमिति (प्रतीति) कराने के लिए भी नहीं किया गया है, जैसा कि अनुमान अलंकार में होता है। जिस प्रकार किसी प्रत्यक्ष हेतु को देखकर परोक्ष साध्य की अनुमिति होती है, जैसे धुएँ को देखकर पर्वत में अग्नि की प्रतीति, ठीक वैसे ही काव्य में भी अप्रस्तुत रूप हेतु के द्वारा प्रस्तुतरूप साध्य की अनुमिति होती है। कितु काव्यानुमिति ( अनुमान अलंकार) में भी अनुमानप्रमाण की सरणि के उपादानों का होना अत्यावश्यक है। जिस प्रकार धुएँ को देख कर अग्नि का भान तभी हो सकता है, जब अनुमाता को परामर्श ज्ञान हो, तथा धुएँ और अग्नि का व्याप्तिसंध (यत्र-यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निः) तथा पक्षधर्मता (वह्निव्याप्यधूमवानयं पर्वतः) आदि का ज्ञान हो, ठीक इसी तरह अनुमान अलंकार में भी व्याप्ति तथा पक्षधर्मतादि का होना जरूरी है । अप्रस्तुत में इनकी सत्ता होने पर ही उसे प्रस्तुत का हेतु तथा प्रस्तुत को उसका साध्य माना जा सकता है। यहाँ यह बात नहीं पाई जाती। साथ ही ऐसे स्थलों में दृष्टान्त अलंकार भी नहीं माना जा सकता। उदाहरण के लिए हम निम्न पद्य ले लें___ 'वीर मनुष्यों को कुपित कर देने वाला, दुष्ट व्यक्ति के द्वारा किया गया विश्वासघात रूपी दोष स्वयं उसी का नाश करने में समर्थ होता है। जैसे,शेर को नींद से जगाने वाली (शेर की नींद को चुराने वाली), हाथी के द्वारा तोड़े गये वनपादप की आवाज खुद हाथी का ही नाश करती है।' __ यहाँ प्रथमार्च में सामान्य उक्ति है, द्वितीयार्ध में विशेष उक्ति । यहाँ सामान्य (प्रस्तुत) विशेष (अप्रस्तुत ) का उपमान है, किन्तु अप्रस्तुत स्वयं प्रस्तुत का उपमान होता हो, ऐसा स्थल देखने में नहीं आता-यदि ऐसा स्थल हो तो यहाँ दृष्टान्त अलङ्कार माना जा सकता है। हम देखते हैं कि दृष्टान्त में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत में बिम्बप्रतिबिम्बभाव पाया जाता है, वहाँ दोनों अर्थ विशेष होते हैं तथा अप्रस्तुत प्रस्तुत का उपमान होता है क्योंकि विशेष कहीं सामान्य का उपमान बने ऐसा कहीं नहीं देखा जाता, साथ ही उक्त स्थलों में इवादि के अभाव के कारण उपमान के रूप में उसके अन्वय की प्रतीति नहीं हो पाती। इसलिए यहाँ भी अप्रस्तुत का प्रयोग प्रस्तुत के समर्थन के लिए माना जाना चाहिए। ऐसा मानने पर यहाँ भी वाक्यार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलकार होगा, अन्य दूसरे अलङ्कार के मानने की जरूरत नहीं है।