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कुवलयानन्दः
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Postalदाजहार ( काव्या० २।२६९ ) -
'युवैष गुणवान् राजा योग्यस्ते पतिरूर्जितः । रणोत्सवे मनः सक्तं यस्य कामोत्सवादपि ॥ चपलो निर्दयश्चासौ जनः किं तेन मे सखि ! | आगः प्रयार्जनायैव चाटवो येन शिक्षिताः ॥'
अत्राद्यश्लोके राज्ञो वीर्योत्कर्षस्तुतिः । कन्याया निरन्तरं सम्भोगनिर्विवर्तिया दोषत्वेन प्रतिभासतामित्यभिप्रेत्य विदग्धया सख्या राजप्रकोपपरिजिहीर्षया स एव दोषो गुणत्वेन वर्णितः । उत्तरश्लोके सखीभिरुपदिष्टं मानं कर्तुमशक्तयापि तासामग्रतो मानपरिग्रहणानुगुण्यं प्रतिज्ञाय तदनिर्वाहमाशङ्कमानया सखीनामुपहासं परिजिहीर्षन्त्या नायिकया नायकस्य चाटुकारितागुण एव दोषत्वेन वर्णितः । न चाद्यश्लोके स्तुतिर्निन्दा पर्यवसायिनी, द्वितीयश्लोके च निन्दा स्तुतिपर्यवसायिनीति व्याजस्तुतिराशङ्कनीया । राजप्रकोपादिपरिहारार्थमिह निन्दास्तुत्योरन्याविदिततया लेशत एवोद्घाटनेन ततो विशेषादिति । वस्तुतस्तु -
मौके की बात को नहीं सोच पाता, जो अच्छे या बुरे काम से व्याकुल नहीं होता और जिसका हृदय भले-बुरे के ज्ञान से शून्य रहता है ।
यहाँ सज्जन व्यक्ति के सच्चरित-व्यसन को, जो गुण है, दोष बताया गया है तथा प्राकृत जन की विवेकशून्यता के दोष को गुण बताया गया है, अतः लेश अलङ्कार है । दण्डी ने लेश अलङ्कार का निम्न उदाहरण दिया है।
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कोई सखी किसी राजकुमारी से कह रही हैः- हे राजकुमारी, यह वीर गुणवान् युवक राजा तुम्हारा पति बनने योग्य है । इसका मन कामोत्सव से भी अधिक रणोत्सव में आसक्त रहता है ।
( इस पद्य में सखी राजा के गुण बताकर राजकुमारी को उसके इस दोष का संकेत कर रही है कि वह सदा युद्धादि में व्यस्त रहेगा । )
कोई नायिका अपराधी नायक की ओर से मिन्नतें करती सखी से कह रही है : हे सखि, यह तो बढ़ा चञ्चल व निर्दय है, उससे मुझे क्या ? इसने तो ये सारी चापलूसियाँ अपराध का संशोधन करने के लिए सीख रखी हैं ।
( यहाँ नायक की चाटुकारिता के गुण को दोष के रूप में वर्णित किया गया है | )
दण्डी द्वारा उदाहृत इन श्लोकों में प्रथम श्लोक में राजा की वीरता की स्तुति है । पर चतुर सखी ने राजा के कोप को बचाने के लिए उसके दोष को गुण बनाकर वर्णित किया है। वैसे सखी का अभिप्रेत आशय यह है कि राजकुमारी यह समझ ले कि वह राजा सदा सम्भोगादि से उदासीन रहता है, अतः इस दोष से युक्त है। दूसरे श्लोक में सखियों के द्वारा अपराधी नायक से मान करने की शिक्षा दी गई नायिका अपराधी नायक से मान नहीं कर पाती किन्तु फिर भी सखियों के सामने इस बात की प्रतिज्ञा करती है कि वह मान करेगी। वैसे उसे इस बात की आशंका है कि वह मान न कर पाथ्रुगी, इसलिए सखियों के हँसी मजाक से बचने की इच्छा से नायक के चाटुकारिता •गुण का दोष के रूप में वर्णन करती है। प्रथम श्लोक में निन्दा के रूप में परिणत स्तुति इ तथा द्वितीयश्लोक में स्तुति के रूप में परिणत निन्दा है, ऐसा समझकर इन उदाहरणों
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