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यथा वा
कुवलयानन्दः
मल्लिका माल्यभारिण्यः सर्वाङ्गीणार्द्रचन्दनाः । क्षौमवत्यो न लक्ष्यन्ते ज्योत्स्नायामभिसारिकाः ॥
अत्राद्ये चरणालक्तकरसयोररुणिमगुणसाम्याद्भेदानध्यवसायः । द्वितीयो - दाहरणे चन्द्रिका भिसारिकाणां धर्षालिमगुणसाम्याद्भेदानध्यवसायः ।। १४६ ।। ८० सामान्यालङ्कारः
सामान्यं यदि सादृश्याद्विशेषो नोपलक्ष्यते । पद्माकरप्रविष्टानां मुखं नालक्षि सुभ्रुवाम् || १४७ ॥
यथा वा
रत्नस्तम्भेषु संक्रान्तप्रतिबिम्बशतैर्वृतः । लङ्केश्वरः सभामध्ये न ज्ञातो वालिसूनुना ॥
( यहाँ लाक्षारस तथा चरण की अरुणिमा सदृश होने के कारण परस्पर इतनी संश्लिष्ट हो गई है कि उनका भेद लक्षित नहीं होता । )
अथवा जैसे
मलिक की माला धारण किये समस्त अंगों में चन्दन लगाये, श्वेत रेशमी वस्त्र पहने प्रिय के पास जाती अभिसारिकाएँ चन्द्रिका में परिलक्षित नहीं हो पातीं ।
प्रथम उदाहरण में चरण तथा लाक्षारस दोनों के समानरूप से लाल होने के कारण ( दोनों के अरुणिमा गुण के साम्य के कारण ) उनका भेद लुप्त हो गया है। द्वितीय उदाहरण में चन्द्रिका तथा अभिसारिकाओं में समान श्वेत गुण पाया जाता है, अतः उनका परस्पर भेद लुप्त हो गया है।
टिप्पणी- पण्डितराज ने इसका उदाहरण यह दिया है, जहाँ नायिका के मुख की सुरभि तथा ओठों की ललाई के कारण तांबूल की सुरभि व राग परिलक्षित नहीं होते ।
सरसिरुहोदर सुरभावधरितबिंबाधरे मृगाचि तव ।
वद वदने मणिरदने ताम्बूलं केन लक्षयेम वयम् ॥ /
८०. सामान्य अलंकार
१४६ - जहाँ अनेक वस्तुएँ अत्यधिक सदृश हों तथा उनके सादृश्य के कारण किसी विशेष वस्तु का व्यक्तिभान होने पर भी विशेष भान न हो सके, वहाँ सामान्य अलङ्कार होता है । जैसे, तालाव में नहाने के लिए धँसी हुई नायिकाओं के मुख, कमलों में मिल
' जाने के कारण दिखाई नहीं पड़ते थे ।
( यहाँ कमलों के सादृश्य के कारण सुभ्रुमुख का विशेष भान नहीं हो पाता, अतः सामान्य अलङ्कार है ।)
अथवा जैसे—
वालिपुत्र अंगद सभा में बैठे वास्तविक लंकेश्वर को इसलिए न पहचान पाया कि वह रतस्तम्भों में प्रतिबिंबित सैकड़ों प्रतिबिंबों से युक्त था । इसलिए अंगद बिंव तथा 'प्रतिबिंब का भेद न कर पाया ।