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भाविकालकारः
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कुरङ्गरुत्तरङ्गाक्षैः स्तब्धकर्णैरुदीक्ष्यते ॥ १६० ॥ यथा वा
तौ संमुखप्रचलितौ सविधे गुरूणां
मार्गप्रदानरभसस्खलितावधानौ । पार्थोपसर्पणमुभावपि भिन्नदिक कृत्वा मुहुर्मुहुरुपासरतां सलज्जम् ॥ १६० ॥
९४ भाषिकालङ्कारः भाविकं भूतभाव्यर्थसाक्षात्कारस्य वर्णनम् ।
अहं विलोकयेऽद्यापि युध्यन्तेऽत्र सुरासुराः ॥ १६१ ॥ स्थानभीषणत्वोद्भावनपरमिदम् । यथा वा
अद्यापि तिष्टति हथोरिदमुत्तरीयं
धतुं पुरः स्तनतटात्पतितं प्रवृत्ते । वाचं निशम्य नयनं ममेति
किंचित्तदा यदकरोस्मितमायताक्षी ।। १६१ ।। पर स्वभावोक्ति अलंकार होता है। जैसे चंचल बालों वाले, स्तब्धकर्ण हिरन देख रहे हैं।
(यहाँ हिरणों के स्वभाव का वर्णन होने से स्वभावोक्ति अलंकार है।) अथवा जैसे
कोई नायक-नायिका घर के बड़े लोगों के पास एक दूसरे की ओर चले। वे एक दूसरे को रास्ता देने की तेजी में सावधानी भूल जाते हैं, इससे उनके विपरीत चंग बायेदायें अंग एक दूसरे से बार-बार रगड़ खा जाते हैं। इसके बाद वे लजित हो कर वहाँ से भग जाते हैं। (यहाँ सलज्ज व्यक्तियों की क्रिया का स्वाभाविक वर्णन है।)
९४. भाविक भलंकार १६१-जहाँ भूत काल या भविष्यत् काल की वस्तु का वर्तमान (साताकार) के हंग पर वर्णन किया जाय, वहाँ भाविक अलंकार होता है। जैसे, मैं आज भी यह देख रहा हूँ, कि यहाँ देवता व दैत्य युद्ध कर रहे हैं। __ यहाँ स्थान की भीषणता बताने के लिए भूत काल की घटना को प्रत्यक के रूप में कहा गया है।
अथवा जैसेकिसी नायिका का स्तनवस नीचे गिर गया था। उसने 'मेरा वस्त्र (नयन) कहाँ है, मेरा वस्त्र (नयन) कहाँ है' इस प्रकार मुसकराते व मुसकराहट के कारण स्फीत भाँखों को धारण करते कुछ कहा । नायक कह रहा है-मुझे आज भी ऐसा प्रतीत होता है, जैसे नायिका का उत्तरीय आज भी मेरी आँखों के सामने है, और स्तनतट से गिरे उसको मैं पकडने ही जा रहा हूँ कि वह मुसकुराहट से स्फीत आँखों वाली 'मेरा नयन कहाँ है, मेरा नयन कहाँ है' इस प्रकार कह रही है।