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कुवलयानन्दः
९७ निरुक्त्यलङ्कारः निरूक्तियोगतो नाम्नामन्यार्थत्वप्रकल्पनम् ।
ईदृशैश्चरितैर्जाने सत्यं दोषाकरो भवान् ।। १६४ ॥ यथा वा
पुरा कवीनां गणनाप्रसङ्गे कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदासा । अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावादनामिका सार्थवती बभूव || १६४ ॥
९८ प्रतिषेधालङ्कारः प्रतिषेधः प्रसिद्धस्य निषेधस्यानुकीर्तनम् । न द्यूतमेतत्कितव ! क्रीडनं निशितैः शरैः ॥ १६५ ॥ निर्घातो निषेधः स्वतोऽनुपयुक्तत्वादर्थान्तरं गर्भाकरोति । तेन चारुत्वान्वि. तोऽयं प्रतिषेधनामालङ्कारः । उदाहरणं युद्धरङ्गे प्रत्यवतिष्ठमान शाकुनिक प्रति विदग्धवचनम् । अत्र युद्धस्याक्षद्यतत्वाभावो निति एव कीर्त्यमानस्तत्रैव तव
९७. निरुक्ति अलंकार १६४-जहाँ यौगिक अर्थ के द्वारा ( योग के द्वारा) किन्हीं वस्तुओं के नाम की अन्यार्थ कल्पना की जाय, वहाँ निरुक्ति अलंकार होता है, जैसे (कोई विरहिणी चन्द्रमा को फटकारती कह रही है) तुम्हारे इस प्रकार हमें सताने से यह सिद्ध होता है कि तुम सचमुच दोषाकर (दोर्षों की खान; दोषा (रात्रि) के करने वाले-चन्द्रमा) हो।
यहाँ चन्द्रमा का नाम 'दोषाकर' है, जिसका अर्थ नये ढंग से 'दोष+ आकर' (दोषों की खान) कल्पित किया गया है। अतः यहाँ निरुक्ति अलंकार है। इसी का दूसरा उदाहरण निम्न है :___ 'पुराने जमाने में जब कभी कवियों की गणना की जाती थी तो कालिदास का नाम कनिष्टिका अंगुलि पर स्थित रहता था। आज भी कालिदास के समान कोई कवि न हुआ इसलिए कनिष्ठिका के बाद की अंगुलि अनामिका सार्थवती हो गई। __ यहाँ 'अनामिका' नाम की व्युत्पत्ति (निरुक्ति) कविन दूसरे ढंग से यह की है कि कालिदास के बाद किसी कवि के उसके समान प्रतिभाशाली न होने के कारण अगली 'अंगलि पर गिनने को कोई नाम न मिला, अतः उसका 'अनामिका' (न विद्यते कविनाम यस्यां सा) नाम सार्थक हो गया।
९८. प्रतिषेध अलंकार १६५-जहाँ प्रसिद्ध निषेध का वर्णन किया जाय, वहाँ प्रतिषेध अलंकार होता है, जैसे (युद्ध में स्थित किसी चतक्रीडारत व्यक्ति से कोई कह रहा है) हे धूर्त, यह जुए का खेल नहीं है, यह तो तीक्ष्ण बाणों का खेल है।
प्रसिद्ध निषेध स्वतः अनुपपुक्त होने के कारण किसी अन्य अर्थ को प्रगट करता है। इसलिए चारुता से युक्त होने के कारण यह प्रतिषेध नामक अलंकार कहलाता है। उदाहरण किसी चतुर व्यक्ति का वचन है, जो युद्धस्थल में स्थित किसी तकार (शाकुनिक) से कहा गया है। यहाँ युद्ध स्वयं ही धूतक्रीडा से भिन्न है, यह प्रसिद्ध बात है, किंतु इस