Book Title: Kuvayalanand
Author(s): Bholashankar Vyas
Publisher: Chowkhamba Vidyabhawan

View full book text
Previous | Next

Page 342
________________ उत्तरालङ्कारः २४५ काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाकयोः। वसन्तसमये प्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः॥ इदं विशेषकस्योदाहरणान्तरम् । अत्र द्वितीयौ काक-पिकशब्दौ 'काकत्वेन ज्ञातः पिकत्वेन ज्ञातः' इत्यर्थान्तरसंक्रमितवाच्यौ। यथा वा वाराणसीवासवतां जनानां साधारणे शंकरलान्छनेऽपि । पार्थप्रहारव्रणमुत्तमाङ्गं प्राचीनमीशं प्रकटीकरोति ।। १४८ ॥ ___ . ८३ उत्तरालङ्कारः किंचिदाकूतसहितं स्यादगूढोत्तरमुत्तरम् । होने पर, नाभीकमल की सुगन्ध के कारण विष्णु का भेदज्ञान हो जाता है, अतः यहां उन्मीलित अलङ्कार है।) टिप्पणी-पण्डितराज जगन्नाथ ने अप्पयदीक्षित के इस उदाहरण की आलोचना की है। वे बताते हैं कि अप्पयदीक्षित का 'तद्गुणरीत्यापि भेदानध्यवसायप्राप्तावुन्मीलितं यते। यथा-'नृत्यदर्गा...."प्रबोध:'-यह मत ठीक नहीं है (-इति । तदपि न ।) क्योंकि तद्गुण में भेदातिरोहिति गुणों की होती है, वस्तुओं (गुणियों ) की नहीं, यह निर्विवाद है। यहाँ नामीकमल के परिमल से विष्णु का भेदशान हो जाता है, फिर भी विष्णु की नीलिमा (गुण) यश की धवलिमा के साथ अभिन्न हो गई है ( दूसरे शब्दों में विष्णु ने यश के अत्युत्कृष्ट होने के कारण उसके गुण धवलिमा का ग्रहण कर लिया है), अतः यहाँ तद्गुण अलङ्कार स्पष्ट है, फिर दीक्षित महोदय उसका प्रतिद्वन्दी उन्मीलित व्यर्थ मानते हैं । आगे जाकर वे बताते हैं कि अप्पयदीक्षित के उपजीव्य अलङ्कारसर्वस्वकार रुय्यक ने उन्मीलित तथा विशेष इन दो अलवारों का जिक्र ही नहीं किया है। इनका समावेश प्राचीनों के अलकारों में हो ही जाता है । खाली इसीलिए कि हम नये अलङ्कार की उद्भावना करने की वाचोयुक्ति का प्रयोग कर रहे हैं, हमें व्यर्थ ही प्राचीनों की मर्यादा छोड़ कर बेलगाम नहीं दौड़ना चाहिए। (न तावत्पृथगलंकारत्ववाचोयुक्त्या विगलितभंखलत्व. मात्मनो नाटयितुं साम्प्रतं मर्यादावशंवदेरायैरिति । (रसगङ्गाधर पृ० ६९९) । __'कौमा काला है, कोयल भी काली है, कौए और कोयल में भेद ही क्या है? वसन्त ऋतु के आने पर कौभा कौआ हो जाता है, कोयल कोयल।' । (यहाँ वसन्त समय के कारण काकत्व या पिकत्व का वैशिष्टय भान हो जाता है।) यह विशेषक का उदाहरण है। यहाँ दूसरे काक तथापिक शब्द 'कौए के रूप में जान, लिया गया, कोयल के रूप में जान लिया गया', इस प्रकार अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य हैं। अथवा जैसे यद्यपि काशी में रहने वाले सभी निवासी समानरूप से शंकरस्व से युक्त है' तयापि अर्जुन के प्रहार के व्रण से युक्त सिर वाले होने के कारण प्राचीन शिव (वास्तविक शंकर) प्रकट हो ही जाते हैं। । यहाँ 'पार्थप्रहारवणयुक्त उत्तमांग' के कारण नकली शंकर तथा असली शंकर का वैशिष्ट्य भान हो ही जाता है। ८३. उत्तर अलङ्कार १४९-जहाँ किसी विशेष अभिप्राय से युक्त गूढ उत्तर दिया जाय, वहाँ उत्तर अलंकार

Loading...

Page Navigation
1 ... 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394