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कुवलयानन्दः
रस्य न्यासप्रसङ्ग इति वाच्यम् ; इष्टापत्तेः । अत्रैव विषये विकस्वरालङ्कारस्यानुपदमेव दर्शयिष्यमाणत्वात् । किंच काव्यलिङ्गेऽपि न सर्वत्र समर्थनसापेक्षत्व नियमः । 'चिकुरप्रकरा जयन्ति ते' इत्यत्र तदभावादुपमानवस्तुषु वर्णनीयसाम्याभावेन निन्दायाः कविकुलक्षुण्णत्वेनात्र समर्थनापेक्षाविरहात् । न हि 'तदास्य. दास्येऽपि गतोऽधिकारितां न शारदः पार्वणशर्वरीश्वरः' इत्यादिषु समर्थनं दृश्यते ।।
'न विषेण न शस्त्रेण नाग्निना न च मृत्युना ।
अप्रतीकारपारुष्याः स्त्रीभिरेव स्त्रियः कृताः ।।' __ इत्यादिकाव्यलिङ्गविषयेषु समर्थनापेक्षाविरहेऽप्यप्रतीकारपारुष्या इत्यादिना हो पाता। पूर्वपक्षी की यह दलील ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा करने पर इष्टापत्ति होगी तथा अर्थान्तरन्यास अलंकार का विषय ही न रहेगा। इस स्थल पर विकस्वर अलंकार होगा, जिसका वर्णन हम इसके ठीक आगे करेंगे। साथ ही पूर्वपक्षी का यह कहना कि काव्यलिंग में सदा समर्थन-सापेक्षत्व पाया जाता है, ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है। कई ऐसे स्थल भी हैं, जहाँ काव्यलिंग में भी समर्थन की अपेक्षा नहीं पाई जाती । उदाहरण के लिए 'चिकुरप्रकरा जयन्ति ते' इस उक्ति में समर्थनापेक्षत्व नहीं है, क्योंकि कहाँ उपमानवस्तु (चमरीपुच्छभार) में वर्णनीय उपमेय (दमयन्तीचिकुरभार) के साम्य का अभाव होने के कारण उनकी निंदा व्यक्त होती है, तथा यह उपमान कविकुल प्रसिद्ध होने के कारण यहाँ इसके समर्थन की कोई आवश्यकता नहीं है। ठीक इसी तरह 'तदास्यदास्येपि गतोऽधिकारितां न शारदः पार्वणशर्वरीश्वरः' (शरद् ऋतु की पूर्णिमा का चन्द्रमा उस राजा नल दे. मुख की दासता करने के भी योग्य नहीं है) इस उक्ति में भी कोई समर्थन नहीं दिखाई देता। टिप्पणी-पूरा पद्य निम्न है, इसकी व्याख्या काव्यलिंग अलंकार के प्रकरण में देखें।
चिकुरप्रकरा जयन्ति ते विदुषी मूर्धनि सा बिभर्ति यान् ।
पशुनाप्यपुरस्कृतेन तत्तुलनामिच्छतु चामरेण कः ॥ (नैषध, द्वितीयसर्ग) पूरा पद्य यों हैं :
अधारि पछेषु तदंघ्रिणा घृणा व तच्छयच्छायलवोऽपि पल्लवे। तदास्यदास्येऽपि गतोऽधिकारितां न शारदः पार्वणशर्वरीश्वरः ॥ (नैषध, प्रथमसर्ग ) इतना ही नहीं, कायलिंग में ऐसे भी स्थल देखे जाते हैं, जहाँ समर्थन की आवश्यकता न होते हुए भी कवि समर्थन कर देता है। जैसे निम्न काव्यलिंग के उदाहरण में समर्थनापेक्षा नहीं है, फिर भी 'अप्रतीकारपारुप्याः' इस पद के द्वारा समर्थन कर दिया गया है। ____ 'ब्रह्मा ने स्त्रियों को न तो विष से बनाया है, न शस्त्र से ही, न अग्नि से निर्मित किया है, न मृत्यु से ही, क्योंकि इनकी कठोरता का कोई इलाज हो भी सकता है। पर स्त्रियों की परुषता का कोई इलाज नहीं हो सकता, इसलिए ब्रह्मा ने स्त्रियों की रचना स्त्रियों से ही की है । (स्त्रियाँ विष, शस्त्र, अग्नि तथा मृत्यु से भी अधिक कठोर तथा भयंकर हैं।)
यहाँ स्त्रियाँ विषादि के द्वारा निर्मित नहीं हुई हैं, इस उक्ति के समर्थन की कोई अपेक्षा नहीं जान पड़ती, क्योंकि यह तो स्वतः प्रसिद्ध वस्तु है।
इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि पूर्वपक्षी के द्वारा किया गया यह विभाजन कि जहाँ समर्थन-सापेक्षत्व हो वहाँ काव्यलिंग होता है, तथा जहाँ निरपेक्षसमर्थन हो वहाँ अर्थांतर