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उल्लासालङ्कारः
तस्यैव गण्डयुगमण्डनहानिरेषा भृङ्गाः पुनर्विकचपद्मवते चरन्ति ||
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अत्र भ्रमराणामलंकरणत्वगुणेन गजस्य तत्प्रतिक्षेपो दोषत्वेन वर्णितः । आघातं परिचुम्बितं परिमुहुर्लीढं पुनश्चर्वितं
त्यक्तं वा भुवि नीरसेन मनसा तत्र व्यथां मा कृथाः । हे सद्रत्न ! तवैतदेव कुशलं यद्वानरेणादरा
दन्तःसारविलोकन व्यसनिना चूर्णीकृतं नाश्मना ॥ अत्र वानरस्य चापलदोषेण रत्नस्य चूर्णनाभावो गुणत्वेन वर्णितः । अत्र प्रथम चतुर्थयोरुल्ला सोऽन्वर्थः । मध्यमयोश्ळ त्रिन्यायेन लाक्षणिकः ।। १३३ - १३५॥
दिया, तो इसमें भौरों का क्या बिगड़ा ? यह तो हाथी के ही कपोलमण्डल की शोभा की हानि हुई, भौंरे तो फिर कहीं किसी खिले कमल वाले सरोवर में विहार करने लगते हैं ।
( यहां कवि ने गज-भ्रमरगत अप्रस्तुत व्यापार के द्वारा कुदातृ - याचकगत प्रस्तुत व्यापार की व्यंजना की है। अतः अप्रस्तुतप्रशंसा भी अलंकार है । )
यहां 'भौंरे हाथी के कपोलमण्डल की शोभा हैं' इस गुण के द्वारा 'हाथी के द्वारा उनका तिरस्कार' रूप दोष वर्णित किया गया है, अतः यह उल्लास का तीसरा भेद है ।
( किसी के दोष के द्वारा दूसरे के गुण के वर्णन का उदाहरण )
कोई कवि की मणि से कह रहा है । हे मणि (सद्रत्न ), बन्दर के हाथ पड़ने पर उसने पहले तुम्हें सूँघ, फिर चूमा, फिर चाटा, फिर मुँह में दांतों से चबाया, जब कोई स्वाद न आया तो नीरस मन से जमीन पर फेंक दिया, इस संबंध में तुम्हें इस बात का दुःख करने की आवश्यकता नहीं कि बन्दर तुम्हारी कद्र न कर सका । हे मणि, यों कहो कि यह तुम्हारी खैर थी कि बन्दर ने तुम्हारी केवल इतनी ही परीक्षा की तथा तुम्हारे के भाग को देखने की इच्छा से तुम्हें पत्थर से चूर्ण-विचूर्ण न कर डाला ।
अन्दर
( कोई योग्य व्यक्ति अयोग्य परीक्षक के हाथों समुचित व्यवहार नहीं प्राप्त करता और इसके लिए दुःख करता है, उसे सान्वना देता कवि कहता है कि यह तो परीक्षक की अयोग्यता के कारण हैं, स्वयं उसकी अयोग्यता के कारण नहीं । यदि बन्दर मणि का मूल्य न जाने तो इसमें मणि का क्या दोष? इस पद्य में अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार भी है )
यहां बन्दर की चपलता के दोष का वर्णन कर उसके द्वारा मणि के चूर्ण-विचूर्ण न करने रूपी गुण का वर्णन किया गया है, अतः यह उल्लास का चौथा भेद है ।
इन चारों प्रकार के उल्लास में सच्चा उल्लास प्रथम तथा चतुर्थ भेद में ( गुण के द्वारा गुण के तथा दोष के द्वारा गुण के वर्णन में ) ही पाया जाता है। बाकी दो भेद द्वितीय तथा तृतीय में उल्लास नामक संज्ञा केवल लाक्षणिक है, ठीक वैसे ही जैसे कई लोग जा रहे हों तथा उनमें कुछ के पास छाता हो तो हम कहते हैं 'वे छाते वाले जा रहे हैं (छत्रिणो. यान्ति) और इस प्रकार छाते वालों के साथ जाते बिना छाते वालों के लिए भी 'छत्रिणः' कालाक्षणिक प्रयोग कर बैठते हैं । भाव यह है, बीच के दो भेद ( दोष से दोष तथा गुण से दोष वाले भेद) केवल लाक्षणिक दृष्टि से उल्लास है, क्योंकि वहां अन्यवस्तु का गुण वर्णित न होकर दोष वर्णित होता है ।
१५ कुव०