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कुवलयानन्दः
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७० अवज्ञालङ्कारः
ताभ्यां तौ यदि न स्यातामवज्ञालंकृतिस्तु सा । स्वल्पमेवाम्बु लभते प्रस्थं प्राप्यापि सागरम् ॥ मीलन्ति यदि पद्मानि का हानिरमृतद्युतेः ॥ १३६ ॥
ताभ्यां गुणदोषाभ्याम् । तौ गुणदोषौ । अत्र कस्यचिद्गुणेनान्यस्य गुणाद्वितीयार्धमुदाहरणम् । दोषेण दोषस्याप्राप्तौ तृतीयार्धम् |
यथा
मदुक्तिश्चेदन्तर्मदयति सुधीभूय सुधियः किमस्या नाम स्यादरसे पुरुषानादरभरैः । यथा यूनस्तद्वत्परमरमणीयापि रमणी कुमाराणामन्तःकरणहरणं नैव कुरुते ||
टिप्पणी- कुछ विद्वान् उल्लास को भिन्न अलंकार नहीं मानते। एक दल इसका समावेश काव्यलिंग में करता है, तो दूसरा दल इसे केवल लौकिकार्थं मान कर इसमें अलंकारत्व का ही निषेध करता है ।
( 'काव्यलिंगेन गतार्थोऽयम्, नालंकारान्तरत्वभूमिमारोहति' इत्येके । 'लौकिकार्थमयस्वादनलंकार एव' इत्यपरे । ) ( रसगंगाधर पृ० ६८५ )
७०. अवज्ञा अलंकार
१३६-अवज्ञा वस्तुतः उल्लास का ही उलटा अलंकार है। जहां किसी एक के गुणदोष के कारण क्रमशः दूसरे के गुण-दोष का लाभ न हो, वहां अवज्ञा अलंकार होता है । ( इसके दो भेद होंगे किसी एक के गुण के कारण दूसरे का गुणालाभ, किसी एक के दोष के कारण दूसरे का दोषालाभ, इन्हीं के क्रमशः उदाहरण ये हैं )
(१) सागर में जाकर भी प्रस्थ पात्र जितना थोड़ा सा पानी ही मिलता है ।
(२) यदि चन्द्रमा के उदय होने पर कमल बंद हो जाते हैं, तो इसमें चन्द्रमा की क्या हानि ?
कारिका के 'ताभ्यां' का अर्थ है 'गुण और दोष के द्वारा', तथा 'तौ' का अर्थ 'गुण तथा दोष' । यहां किसी एक के गुण के द्वारा दूसरे को गुण की प्राप्ति न होने वाले अवज्ञा भेद का उदाहरण कारिका का द्वितीयार्ध (स्वल्प इत्यादि ) है । किसी एक के दोष से दूसरे के दोष की प्राप्ति न होने वाले अवज्ञाभेद का उदाहरण कारिका का तृतीयार्ध ( मीलन्ति ० इत्यादि ) है । इसके अन्य उदाहरण ये हैं :
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महाकवि श्रीहर्ष अपनी कविता के विषय में कह रहे हैं । यदि मेरी उक्ति अमृत • बनकर बुद्धिमानों के हृदय को मस्त बनाती है, तो नीरस व्यक्ति इसका अनादर करते रहें, इससे क्या ? अत्यधिक सुन्दरी स्त्री भी युवकों के हृदय को जितना आकृष्ट करती
हैं; उतना बालकों के अन्तःकरण को नहीं ।
यहां कविता तथा रमणी के सौंदर्य गुण के द्वारा अरस व्यक्ति तथा बालक के Sarita aafa किया गया है, अतः यह अवज्ञा का प्रथम भेद है ।