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अनुज्ञालङ्कारः
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त्वं चेत्संचरसे दृषेण लघुता का नाम दिग्दन्तिनां
व्यालैः कङ्कणभूषणानि कुरुषे हानि हेम्नामपि । मूर्धन्यं कुरुषे जलांशुमयशः किं नाम लोकत्रयी
दीपस्याम्बुजबान्धवस्य जगतामीशोऽसि किं ब्रूमहे ।। अत्राये कवितारमणीगणाभ्यामरसबालकयोहृदयोल्लासरूपगणाभावो व.. र्णितः। द्वितीये परमेश्वरानङ्गीकरणदोषेण दिग्गजादीनां लघुतादिदोषाभावो वर्णितः ।। १३६ ॥
७१. अनुशालङ्कारः दोषस्याभ्यर्थनानुज्ञा तत्रैव गुणदर्शनात् ।
विपदः सन्तु नः शश्वद्यासु संकीर्त्यते हरिः ॥ १३७ ॥ यथा वा
मय्येव जीर्णतां यातु यत्त्वयोपकृतं हरे !।
नरः प्रत्युपकारार्थी विपत्तिमभिकाङ्कति ।। इयं हनुमन्तं प्रति राघवस्योक्तिः । अत्र प्रत्युपकाराभावो दोषस्तदभ्युपगमे ___ कोइ कवि महादेव से कह रहा है। हे महादेव, अगर तुम बैल पर बैठ कर घूमते हो तो इससे दिग्गज छोटे नहीं हो जाते, अगर तुम सांपों के कंकण वा आभूषण धारण करते हो तो इसमें स्वर्णाभूषणों की क्या हानि है, यहि तुम चन्द्रमा (जडांशु-मूर्ख) को सिर पर धारण करते हो, तो इसमें त्रिलोकी के प्रकाश सूर्य का क्या दोष ? कहां तक कहें, आप फिर भी तीनों लोकों के स्वामी हैं, हम क्या कह सकते हैं ?
यहां महादेव के द्वारा दिग्गजादि के अंगीकार न करने के दोष के द्वारा दिग्गजादि के लघुतादि दोष का अभाव वर्णित किया गया है।
कुछ आलंकारिक इसे पृथक अलंकार न मानकर विशेषोक्ति में ही इसका अन्तर्भाव करते हैं। विशेषोक्त्यैव गतार्थत्वादवज्ञा नालंकारान्तरमित्यपि वदन्ति । ( रसगंगाधर पृ० ६८६)
७१. अनुज्ञा अलंकार १३७-जहां किसी दोष की इच्छा इसलिए की जाय कि उसमें किसी विशेष गुण की स्थिति है, वहां अनुज्ञा अलंकार होता है । जैसे, (कोई भक्त कहता है) हमें सदा विपत्तियों का सामना करना पड़े तो अच्छा, क्योंकि उनमें भगवान् का कीर्तन होता है। __ यहां विपत्तियों ( दोष) की अभ्यर्थना इसलिए की जाती ह कि उनमें भगवद्भजनरूपी गुण विद्यमान है।
अथवा जैसे निम्न उदाहरण में
रामचन्द्र हनुमान् से कह रहे हैं-हे हनुमान् , तुमने जो उपकार किया, वह मेरे लिए प्रत्युपकार की अक्षमता धारण करे। प्रत्युपकार की इच्छा करने वाला व्यक्ति विपत्ति की आकांक्षा करता है।
यह रामकी हनुमान के प्रति उक्ति है। यहां प्रत्युपकाराभाव दोष है, इस दोष की इच्छा का कारण यह है कि इसमें विपत्ति की आकांक्षा न होना रूप गुण पाया जाता है।