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ललितालङ्कारः
न्द्रयोः शब्दोपात्तयोरैक्य समारोप एव तस्याः समुन्मेषात् । यदि विषयविषयिणोः शब्दोपात्तयोः प्रवर्तमान एवालङ्कारो विषयिमात्रोपादानेऽपि स्यात्तदकमेव भेदेऽप्यभेदरूपाया अतिशयोक्तेरपि विषयमाक्रमेत् । ननु तर्ह्यत्र प्रस्तुवनायकादिनिगरणेन तत्र शब्दोपात्ताप्रस्तुतनीराद्यभेदाध्यवसाय इति भेदे अभेदरूपातिशयोकस्तु । एवं तहिं सारूप्यनिबन्धना अप्रस्तुतप्रशंसा विषयेऽपि सैवातिशयोक्तिः स्यात् । अप्रस्तुतधर्मिकत्वान्न भवतीति चेत्, तत्राप्यप्रस्तुतधर्मिवाचकपदस्यापि प्रसिद्धातिशयोक्त्युदाहरणेष्विव प्रस्तुतधर्मिलक्षकत्वसम्भवात् ॥ नन्वप्रस्तुतप्रशंसायां सरूपादप्रस्तुतवाक्यार्थात् प्रस्तुतवाक्यार्थोऽवगम्यते, नत्वतिशयोक्ताविव
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करने पर माना जाने लगेगा तो फिर रूपक अलङ्कार का विषय विस्तृत हो जायगा तथा भेदे अभेदरूपा अतिशयोक्ति ( या रूपकातिशयोक्ति) के क्षेत्र में भी रूपक अलङ्कार का प्रवेश हो जायगा । अतः जहाँ दोनों का स्वशब्दोपात्तत्व अभीष्ट हो वहाँ एक के प्रयोग करने पर वह अलङ्कार न हो सकेगा, इसलिए केवल अप्रस्तुत वृत्तान्त के व्यवहार के कारण यहाँ निदर्शना नहीं मानी जा सकती । पूर्वपक्षी इस सम्बन्ध में एक नई सरणि उपस्थित करता है - ठीक है, आप यहाँ अप्रस्तुतप्रशंसा, समासोकि या निदर्शना में से अन्यतम अलङ्कार नहीं मानते तो न सही, यहाँ भी अभेदरूपा अतिशयोकि मान लें। यहाँ स्वशब्दोपात अप्रस्तुत नीरादि ( नीरनिर्गमन तथा सेतुबन्धन) ने प्रस्तुत नायकादि ( नायकगमन तथा नायकानयन चेष्टा ) का निगरण कर लिया है। इस निगरण के द्वारा अप्रस्तुत का अभेदाध्यवसाय हो गया है इस प्रकार यहाँ भेदे अभेदरूपा अतिशयोक्ति सिद्ध हो जाती है । सिद्धान्तपक्षी को यह मत स्वीकार नहीं । इसी का खण्डन करते हुए वह दलील पश करता है कि ललित अलङ्कार के स्थल पर भेदे अभेदरूपा अतिशयोक्ति मानने पर तो सारूप्य - निबन्धना अप्रस्तुतप्रशंसा के क्षेत्र में भी यही अलङ्कार ( अतिशयोक्ति ) हो जायगा, फिर तो अप्रस्तुत - प्रशंसा के उस भेद को मानने की क्या जरूरत है। यदि आप यह दलील दें कि अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार में अप्रस्तुत वर्ण्य होता है, तथा अतिशयोक्ति में अप्रस्तुत के द्वारा प्रस्तुत का अध्यवसाय होता है ( तथा वहाँ वर्ण्य प्रस्तुत ही होता है ) । अतः अप्रस्तुतप्रशंसा के स्थल में अतिशयोक्ति अलङ्कार नहीं हो सकता । अप्रस्तुतप्रशंसा में भी हम देखते हैं कि अतिशयोक्ति के प्रसिद्ध उदाहरणों की भाँति, अप्रस्तुत धर्मिवाचक पद ( अप्रस्तुत धर्मी से सम्बद्ध वाचक पर्दों) के द्वारा प्रस्तुतधर्मिलक्षकत्व (प्रस्तुतधर्मी से सम्बद्ध लक्षकत्व ) सम्भव हो सकता है । भाव यह है, अतिशयोक्ति में जिन पदों का प्रयोग होता है, वे मुख्यावृत्ति से अप्रस्तुत से सम्बद्ध होते हैं, किन्तु ( साध्यवसाना ) लक्षणा से प्रस्तुत को लक्षित करते हैं, जब कि अप्रस्तुतप्रशंसा में वे पद केवल अप्रस्तुतपरक ही होते हैं, तथा प्रस्तुत व्यञ्जनागम्य होता है - इस प्रकार की पूर्वपक्षी की दलील है, अतः अप्रस्तुतप्रशंसा का समावेश अतिशयोक्ति में नहीं हो सकता। इसी का खण्डन करते हुए सिद्धान्तपक्षी बताता है कि कभी कभी अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत के वाचक पद प्रस्तुत के लक्षक हो सकते हैं । पूर्वपक्षी के मत को फिर उपन्यस्त कर उसी का खण्डन करते हुए सिद्धान्तपक्षी ललित अलङ्कार को अतिशयोक्ति से भिन्न सिद्ध करने के लिए कहते हैं । यदि पूर्वपती यह दलील दे कि अप्रस्तुतप्रशंसा में तुल्यरूप ( सरूप) अप्रस्तुत वाक्यार्थ से प्रस्तुतवाक्यार्थ की व्यञ्जना होती है, अतिशयोक्ति की तरह विषयी ( अप्रस्तुत ) के बाव