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ललितालङ्कारः
सम्भवेन मदस्य प्रत्युत तत्सेव्यत्व एव हेतुत्वेन च रसनाविपर्ययादीनां तत्र हेतुत्वान्वयार्थ वारणपदस्य दुष्प्ररूपविषयक्रोडीकारेणैव प्रवृत्तेर्वक्तव्यत्वात् । एवं सत्यपि यद्यप्रस्तुतसम्बोधनादिविच्छित्तिविशेषात्तत्राप्रस्तुतप्रशं साया अतिशयोक्तितो भेदो घटते, तदात्रापि प्रस्तुतं धर्मिणं स्वपदेन निदिश्य तत्राप्रस्तुतवर्णनारूपस्य विच्छित्तिविशेषस्य सद्भावात्ततो भेदः सुतरां घटते । 'पश्य नीलोत्पलद्वन्द्वान्निःसरन्ति', 'वापी कापि स्फुरति गगने तत्परं सूक्ष्मपद्या' इत्यादिषु तु प्रस्तुतस्य कस्यचिद्धर्मिणः स्ववाच केनानिर्दिष्टत्वादतिशयोक्तिरेव । एतेन गतजलसेतुबन्धनवर्णनादिष्वसंबन्धे संबन्धरूपातिशयोक्तिरस्त्विति शङ्कापि निरस्ता । तथा सति 'कस्त्वं भोः ! कथयामि' इत्यादावपि तत्प्रसङ्गात् सारूप्यनिबन्धन प्रस्तुतवाक्यार्थावगतिरूपविच्छित्तिविशेषेणालङ्कारान्तरत्वकल्पनं त्विहापि तुल्यम् । तस्मात्सर्वालङ्कारविलक्षणमिदं ललितम् ।
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भगा देता है, बाकी हेतु तो इस उक्ति के साथ ठीक नहीं होते क्योंकि हाथी की जिह्वापरिवृत्ति या उसकी सूंड का खोखला होना - हाथी की सेवा भौंरे न करें - इसका कोई हेतु नहीं है, साथ ही मद का होना तो उलटे इस बात की पुष्टि करता है कि हाथी भौरों के द्वारा सेवन करने योग्य है, क्योंकि मद के लिए ही तो भौंरे हाथी के पास जाते हैं ) । ऐसी दशा में 'रसनाविपर्ययविधि' 'अन्तःशून्य करत्व' तथा 'मदवत्ता' हस्तिपक्ष में उसके भ्रमरासेग्य होने के हेतु रूप में पूर्णतः घटित नहीं होते । फलतः प्रथम क्षण में हस्तिरूप अप्रस्तुत वाच्यार्थ की निर्बाध प्रतीति नहीं हो पाती। इसलिए हमें दुष्प्रभुरूप प्रस्तुत वृत्तान्त का आक्षेप पहले ही क्षण में कर लेना पड़ता है । पहले हा क्षण में रसनाविपर्ययादि हेतु के हस्तिपक्ष में अन्वय करने के लिए इस बात की कल्पना करना हमारे लिए आवश्यक हो जाता है कि यहाँ हस्तिरूप अप्रस्तुत वृत्तान्त ने दुष्प्रभुरूप प्रस्तुत वृत्तान्त को छिपा रखा ( क्रोडीकृत कर रखा ) है । यद्यपि यहाँ अप्रस्तुत के द्वारा प्रस्तुत का क्रोडीकरण पाया जाता है, तथा प्रस्तुत के द्वारा ही प्रथम क्षण में अप्रस्तुत वाच्यार्थ की प्रतीति हो पाती है, तथापि यहाँ अतिशयोक्ति की अपेक्षा इसलिए विशेष चमत्कार पाया जाता है कि यहाँ अप्रस्तुत को संबोधित कर उक्ति का प्रयोग किया गया है । इस प्रकार यहाँ अप्रस्तुत को संबोधित करने के चमत्कारविशेष के कारण ही अप्रस्तुतप्रशंसा तथा अतिश योक्ति में भेद हो गया है । इसी तरह यहाँ ( ललित अलंकार में ) भी प्रस्तुत धर्मी को अपने ही वाचक पद के द्वारा वर्णित करके उस प्रसंग में अप्रस्तुत का वर्णन करना एक विशेष चमत्कार उत्पन्न करता है, अतः यहाँ भी अतिशयोक्ति से स्पष्ट भेद मानना ठीक होगा । अतिशयोक्ति में (ललित की भाँति ) प्रस्तुत धर्मों का कोई वाचक पद प्रयुक्त नहीं होता । उदाहरण के लिए 'पश्य नीलोत्पलद्वन्द्वान्निःसरन्ति' तथा 'वापी कापि स्फुरति गगने तत्परं सूक्ष्मपद्या' इत्यादि उदाहरणों में प्रस्तुत धर्मों के लिए कोई वाचक पद प्रयुक्त नहीं हुआ है, अतः यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार ही पाया जाता है । इस प्रकार सिद्धांतपक्षी ने यहाँ इस शंका का निराकरण कर दिया है कि 'गतजलसेतुबन्धन' वर्णनादि के प्रसंग में ( 'निर्गते नीरे सेतुमेषा चिकीर्षति' इत्यादि स्थलों में ) असंबंधे संबंधरूपा अतिशयोक्ति मानी जा सकती है। ऐसा होने पर जिस प्रकार 'कस्त्वं भोः कथयामि' आदि स्थलों में सारूप्यनिबंधन के कारण प्रस्तुत वाक्यार्थ की व्यंजना होने से एक विशेष प्रकार की शोभा (चमत्कार ) होने के कारण नवीन अलंकार की कल्पना की जाती है, वैसे ही