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कुवलयानन्दः
यथा वा
कस्तूरिकामृगाणामण्डाद्गन्धगुणमखिलमादाय ।
यदि पुनरहं विधिः स्यां खलजिह्वायां निवेशयिष्यामि ॥ 'यद्यर्थोक्तौ च कल्पनम्' अतिशयोक्तिभेद इति (१०१००) काव्यप्रकाशकारः ॥ १२६ ॥
६५ मिथ्याभ्यवसित्यलङ्कारः किंचिन्मिथ्यात्वसिद्धयर्थ मिथ्यार्थान्तरकल्पनम् ।
मिथ्याध्यवसितिर्वेश्यां वशयेत्खस्रजं वहन् ॥ १२७॥ अत्र वेश्यावशीकरणस्यात्यन्तासम्भावितत्वसिद्धये गगनकुसुममालिकाधा. रणरूपार्थान्तरकल्पनं मिथ्याध्यवसितिः।
अस्य क्षोणिपतेः परार्धपरया लक्षीकृताः संख्यया. ___ प्रज्ञाचक्षुरवेक्ष्यमाणबधिराव्याः किलाकीर्तयः । गीयन्ते स्वरमष्टमं कलयता जातेन वन्ध्योदरा
___न्मूकानां प्रकरण कूर्मरमणीदुग्धोदधे रोधसि ।। अथवा जैसेयदि मैं ब्रह्मा हो जाऊँ, तो कस्तूरीमृगों के अण्डे से समस्त गन्धरूप गुण को लेकर दुष्टों की जीभ पर रख दूँ।
यहाँ यदि मैं ब्रह्मा हो जाऊँ, तो' इस उक्ति में सम्भावना अलङ्कार है।
काम्यप्रकाशकार के मतानुसार 'यद्यर्थोक्तौ च कल्पनम्' वाला भेद अतिशयोक्ति का प्रकार विशेष है।
६५. मिथ्याध्यवसिति अलङ्कार १२०-जहाँ किसी मिथ्याव की सिद्धि करने के लिए अन्य मिथ्यात्व की कल्पना की जाय, वहाँ मिण्याज्यवसिति अलकार होता है। जैसे गगनकुसुम (खपुष्प) की माला धारण करने वाला व्यक्ति वेश्या को वश में कर सकता है।
इस उदाहरण में वेश्या को वश में करना अत्यन्त असम्भव है, इस बात की सिद्धि के लिए कवि ने गगनकुसुमों की माला का धारण करना, यह दूसरा मिथ्या अर्थ करिपत किया है, इसलिए यहाँ मिथ्याध्यवसिति अलङ्कार है। अथवा जैसे इस निम्न उदाहरण में
किसी राजा की निन्दा के ब्याज से स्तुति की जा रही है :-यह राजा बड़ा अकीर्तिशाली है। इसकी काली अकीर्ति की संख्या कहाँ तक गिनाई जाय, वह पराद्धं की संख्या से भी अधिक है। इसकी अकीर्ति को प्रज्ञाचक्षुओं ( अन्धों) ने देखा है तथा बहरों ने सुना है। वन्ध्या के पेट से उत्पन्न गूंगे पुत्रों का झुण्ड कूर्मरमणी-दुग्ध-समुद्र के सीर पर अष्टम स्वर में इस राजा की अकीर्ति का गान किया करते हैं । भाव यह है, इस राजा में भकीर्ति का नाम निशान भी नहीं है।
यहाँ 'पराध से भी अधिक होना', 'अन्धों के द्वारा देखा जाना', 'वन्ध्यापुत्र' 'गूंगे के द्वारा अष्टम स्वर में गाया जाना' 'कूर्मरमणीदुग्ध' आदि सब वे मिथ्यार्थान्तर हैं, जिनकी कल्पना राजा की अकीर्ति के मिथ्याव को सिद्ध करने के लिए की गई है।