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कुवलयानन्दः
६३ प्रौढोक्त्यलङ्कारः प्रौढोक्तिरुत्कर्षाहेतौ तद्वेतृत्वप्रकल्पनम् ।
कचाः कलिन्दजातीरतमालस्तोममेचकाः॥ १२५ ॥ में पहले घटाभाव का निर्णय कर तदनन्तर 'घट है' इस प्रमा की सिद्धि करता है, इस प्रकार वहाँ भ्रम तथा प्रतारणा (विप्रलम्भ) गुण बन जाते हैं।)
इसमें प्रथम वाक्य में नायिका के मुख की शोभा काले नेत्र तथा तिलकाञ्जन के कारण बढ़ ही रही है, यह विशेष उक्ति है। इसके समर्थन के लिये 'कभी दो दोष मिलकर गुण बन जाते हैं इस सामान्य का प्रयोग किया गया है। इस सामान्य के समर्थन के लिए पुनः अर्थान्तरन्याससरणि से 'वक्ता के वचन में भ्रम तथा विप्रलम्भ कभी कभी गुण हो जाते हैं। इस विशेष का उपादान हुआ है । अतः यहाँ भी विकस्वर अलङ्कार है।
टिप्पणी-पण्डितराज जगन्नाथ विकस्वर अलङ्कार को अलग से अलङ्कार मानने के पक्ष में नहीं हैं। उनके मत में विकस्वर में किन्हीं दो अलकारों की-अर्थान्तरन्यास तथा उपमा की अथवा दो अर्थान्तरन्यासों की संसृष्टि होती है । संसृष्टि को अलग से अलङ्कार का नाम देना उचित नहीं जान पड़ता। कई स्थानों पर उपमादि अनेक अलंकारों में परस्पर अनुग्राह्य-अनुग्राहक-भाव पाया जाता है, फिर तो वहाँ भी नवीन अलंकार का नामकरण करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए 'वीक्ष्य रामं घनश्यामं ननृतुः शिखिनो वने' में उपमा से पुष्ट भ्रान्ति अलंकार को कोई नया नाम देना होगा। ___ कुवलयानन्दकारस्तु-'यस्मिन् विशेषसामान्यविशेषाः स विकस्वरः' 'अनन्तरत्नप्रभ वस्य' इत्यादि । 'कर्णासन्तुन्द'कः' । 'पूर्वमुपमारीत्या इह त्वर्थान्तरन्यासरीत्या विक. स्वरालङ्कारः' इत्याह । तदपि तुच्छम् । ...."एवं चार्थान्तरन्यासस्य तस्य चार्थान्तर. न्यासप्रभेदयोश्च संसृष्टयैवोदाहरणानां स्वदुक्तानां गतार्थस्वे नवीनालंकारस्वीकारानौचि. स्यात् । अन्यथोपमादिप्रभेदानामनुग्राद्यानुग्राहकतया संनिवेशितेऽप्यलङ्कारान्तरकल्पना. पत्तेः । 'वीचय रामं घनश्यामं ननृतुः शिखिनो वने' इत्यत्राप्युपमापोषितायां भ्रान्तावलङ्का. रान्तरप्रसङ्गाच्च । ( रसगङ्गाधर पृ० ६३९.४०)
६३. प्रौढोक्ति अलङ्कार १२५-जहाँ किसी कार्य के अतिशय को न करने वाले पदार्थ को उसका कारण मान लिया जाय, वहाँ प्रौढोक्ति अलङ्कार होता है, जैसे उस नायिका के बाल कालिन्दी (यमुना) के तीर पर उत्पन्न तमाल वृक्षों के समूह के सदृश नीले हैं।
टिप्पणी-प्रौढोक्ति अलंकार को मम्मट तथा रुय्यक ने नहीं माना है। चन्द्रालोककार नयदेव ने इसे अतिशयोक्ति के बाद वर्णित किया है। उनके मत से किसी कार्य के अयोग्य पदार्थ को उस कार्य के योग्य वर्णित करना प्रौढोक्ति है :
प्रौढोक्तिस्तदशक्तस्य तच्छक्तत्वावकल्पनम् ।
कलिन्दजातीररुहाः श्यामलाः सरलद्रमाः॥ (चन्द्रालोक ५.४७) पण्डितराज जगन्नाथ ने अवश्य प्रौढोक्ति को पृथक अलंकार माना है :-'कस्मिंश्चिदर्थ किश्चिद्धर्मकृतातिशयप्रतिपिपादयिषया प्रसिद्धतद्धर्मवता संसर्गस्योद्भावनं प्रोढोक्तिः । ( रसगङ्गाधर पृ० ६७१ ) इस अलंकार का उदाहरण वे यह पद्य देते हैं :
मन्याचलभ्रमणवेगवशंवदा ये दुग्धाम्बुधेरुदपतन्नणवः सुधायाः । तेरेकतामुपगतैर्विविधौषधीभिर्धाता ससर्ज तव देव दयाहगन्तान् ॥