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अर्थान्तरन्यासालङ्कारः
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प्रतीयमानं 'नाहं व्यासः' इत्यादि । तस्मात् 'पशुना' इत्यत्र 'त्रिलोचनः' इत्यत्र च प्रतीयमानं वाच्यस्यैव पदार्थस्य वाक्यार्थस्य च हेतुभावोपपादकतया काव्यलिङ्गस्याङ्गमेव । यथा- 'यत्त्वन्नेत्र समानकान्ति सलिले मग्नं तदिन्दीवरम्' इत्यनेकवाक्यार्थहेतुककाव्यलिङ्गोदाहरणे 'त्वन्नेत्र समानकान्ति' इत्यादिकानि इन्दी. वरश शिहंस विशेषणानि तेषां वाक्यार्थानां हेतुभावोपपादकानीति । तत्र वाक्यार्थहेतुककाव्यलिङ्गे पदार्थहेतुककाव्यलिङ्गमङ्गमिति न तयोः काव्यलिङ्गोदाहरणत्वे काचिदनुपपत्तिः ॥ १२१ ॥
६१ अर्थान्तरन्यासालङ्कारः उक्तिरर्थान्तरन्यासः स्यात् सामान्यविशेषयोः ।
दिये जा चुके हैं, एक 'सर्वाशुचिनिधानस्य' इत्यादि पद्य है, दूसरा 'व्यास्थं नैकतया स्थितं श्रुतिगणं' इत्यादि पद्य । यहाँ प्रथम उदाहरण पदार्थपरिकर का है, द्वितीय वाक्यार्थपरिकर का | 'सर्वाशुचिनिधानस्य' में अनेक पदार्थों के द्वारा 'शरीर असंरक्षणीय है' इस व्यंग्यार्थ की प्रतीति हो रही है । इसी तरह 'व्यास्थं नैकतया स्थितं श्रुतिगणं' ( मैंने एकतया स्थित वेद को चार वेदों में विभक्त नहीं किया ) इस वाक्यार्थ के द्वारा ( तथा इसी तरह पथ के अन्य अन्य वाक्यार्थों के द्वारा ) 'मैं वेदव्यास नहीं हूँ' आदि व्यंग्य अर्थ की प्रतीति होती है । पर 'पशुना' तथा 'त्रिलोचन' इन पदों से प्रतीत व्यंग्यार्थ तो वाच्यार्थभूत पदार्थ तथा वाक्यार्थ के हेतु बन जाने के कारण काव्यलिंग का ही अंग हो गया है । उदाहरण के लिए 'यत्वनेत्र समान कान्ति सलिले मग्नं तदिन्दीवरं' इत्यादि पद्य में अनेकवाक्यार्थहेतुक• काव्यलिंग अलंकार पाया जाता है । यहाँ 'यत्वनेत्र समान कान्ति' आदि पद कमल, चन्द्रमा तथा हंस के विशेषण हैं तथा ये तत्तत् वाक्यार्थ के हेतु बनकर आये हैं । इस प्रकार तत्तत् वाक्यार्थहेतुककाव्यलिंग के ये पदार्थहेतुक काव्यलिंग अंग बन गये हैं । इसी तरह 'पशुनाध्यपुरस्कृतेन' तथा 'मच्चित्तेऽस्ति त्रिलोचनः ' इन दोनों उदाहरणों में भी काव्यलिंग मानने में कोई आपत्ति नहीं दिखाई देती, क्योंकि यहाँ भी तत्तत् पदार्थहेतुक काव्यलिंग तत्तत् अनेकपदार्थरूप तथा वाक्यार्थरूप हेतु वाले ( अंगी ) काव्यलिंग के अंग बन गये हैं । टिप्पणी- सर्वाशुचिनिधानस्य कृतघ्नस्य विनाशिनः । शरीरकस्यापि कृते मूढाः पापानि कुर्वते ॥
व्यास्थं नैकतया स्थितं श्रुतिगणं, जन्मी न वाल्मीकतो, नाभौ नाभवदच्युतस्य सुमहद्भाष्यं न चाभाषिषम् । चित्रार्थी न बृहत्कथामचकथं, सुत्राणि नासं गुरुदेव, स्वद्गुणवृन्दवर्णनमहं कर्तुं कथं शक्नुयाम् ॥ इन दोनों पद्यों की व्याख्या के लिए देखिये - परिकर अलंकार का प्रकरण । पूरा पद्य निम्न है । इसकी व्याख्या प्रतीप अलंकार के प्रकरण में देखियेयवन्नेत्रसमानकांति सलिले मग्नं तदिन्दीवरं,
मेघैरन्तरितः प्रिये तव मुखच्छायानुकारी शशी । येsपि खगमनानुसारिगतयस्ते राजहंसा गतास्त्वत्सादृश्यविनोदमात्रमपि मे दैवेन न क्षम्यते ॥ ६१. अर्थान्तरन्यास अलंकार
१२२ - १२३ - जहाँ विशेष रूप मुख्यार्थ के समर्थन के लिए सामान्य रूप अन्य वाक्यार्थं
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